नई दिल्ली। हो न अंधे इस कदर इस मोह के जंजाल में, इक दिन आना पड़ेगा काल के गाल में, इस रुखे ताबां पे होगी मुदार्नी छाई हुई,तेरी शान होगी वक्त की ठोकर से ठुकराई हुई।
तूने ही मेरे लिए छोड़ा भाई प्यारा वतन, लात मारी ऐश पर, छोड़े सभी साथी, सजन, हाय! जब मैं अवध में जाऊंगा इस भाई बिन, क्या कहूंगा
मर गया लंका में भाई बेकफन?
ये पंक्तियां सुनने में भले ही किसी शेरो-शायरी का हिस्सा लगें, लेकिन ये रामलीला के संवाद अवधी या हिंदी नहीं बल्कि खालिस उर्दू वाले हैं। दिल्ली से सटे फरीदाबाद और पलवल में ऐसी रामलीलाओं का मंचन दशकों से जारी है। फरीदाबाद में यह रामलीला एनएच-एक, सेक्टर-15 में होती है।
विभाजन के बाद भी सांस्कृतिक विरासत कायम
विभाजन के समय पाकिस्तान से बड़ी संख्या में आई हिंदू आबादी को फरीदाबाद में बसाया गया था। उन्हीं के साथ आई ये उर्दू वाली रामलीला। विभाजन को 70 साल पूरे होने को आए लेकिन यहां की रामलीलाओं का अंदाज ज्यादा नहीं बदला है। ऐसी ही एक रामलीला के आयोजक बताते हैं कि उनके पूर्वज बंटवारे से पहले पाकिस्तान में उर्दू शब्दों की बहुलता वाले संवाद ही रामलीला में सुनाया करते थे। विभाजन की त्रासदी में लाखों लोग इधर से उधर हुए। घर-बार छूट गए लेकिन उन्होंने अपनी सांस्कृतिक विरासत नहीं छोड़ी। भारत आने पर यहां भी वो सिलसिला शुरू हो गया।
इस तरह की रामलीला में श्रीराम, लक्ष्मण, सीता, हनुमान, परशुराम, रावण और अंगद सब शेरो-शायरी में अपनी बात रखते हैं। कायरपन, बुजदिली, शुमार, जुमले, जुल्म, हलक, पैगाम, कत्लेआम, आबरू, नुमाइश, मुतस्सर, जौहर, बेहूदा अल्फाज, अफसोस, तिलमिलाना, गुस्ताख, नाहक, दुहाई, गुनाहगार, गुफ्तगू, गैरमौजूदगी, आइंदा और लगाम जैसे शब्दों का संवाद में इस्तेमाल यहां आम है।
सैफ अली के पूर्वजों ने की थी शुरुआत
देशभर में रामलीलाएं रात में होती हैं लेकिन गुड़गांव के पास पटौदी कस्बे में दिन में भी मंचन होता है। इस रामलीला को फिल्म अभिनेता सैफ अली खान के पूर्वज मोहम्मद मुमताज अली खान उर्फ मुट्टन मियां ने 1902 में शुरू करवाया था। इसे हिंदू-मुस्लिम एकता के प्रतीक के तौर पर भी देखते हैं। रामलीला शुरू होने से पहले और बाद में लगभग 50 पात्रों की सवारी निकलती है।
मंचन दोपहर 3 बजे से शाम को 6 बजे तक होता है। एनएसडी की संस्कार रंग टोली से जुड़े रंगकर्मी मनोज मदान कहते हैं कि ऐसे समय में जब भाषाओं को लेकर लोग लड़-झगड़ रहे हैं, उर्दू शब्दों से भरी रामलीला करना अपने आप में साहसिक काम है। ऐसी रामलीलाएं बताती हैं कि जब हिंदुस्तान-पाकिस्तान एक मुल्क हुआ करते थे, तब हमारी संस्कृति कितनी अच्छी थी।