वाशिंगटन। भारत की आरक्षण व्यवस्था को आलोचनाओं से घिरा हुआ बताते हुए एक जाने माने विशेषज्ञ ने कहा है कि ऐसा इसलिए हो रहा है क्योंकि इसकी तीव्र आर्थिक वृद्धि की परिणति निजी क्षेत्र में नौकरियों की वृद्धि के रूप में नहीं हुई है। भारतीय प्रशासनिक सेवा में 14 साल तक काम कर चुके ड्यूक यूनिवर्सिटी में लोकनीति के प्रोफेसर अनिरूद्ध कृष्णा ने कहा, जाति आधारित आरक्षण के मुख्य मुद्दा बन जाने की वजह यह है कि भारत की तीव्र आर्थिक वृद्धि की परिणति निजी क्षेत्र में नौकरियों की संख्या में किसी बड़े इजाफे के रूप में नहीं हुई है।
भारत के विकास का मार्ग प्रमुखत: उच्च तकनीक वाले सेवा क्षत्र पर आधारित रहा है, जिसमें तुलनात्मक रूप से कुछ ही उच्च प्रशिक्षित विशेषज्ञ होते हैं।
विकासशील देशों में लोकतंत्र पर काम करने वाले कृष्णा ने कहा कि कामकाजी उम्र सीमा के तहत आने वाले भारतीयों में से आठ प्रतिशत लोगों को छोड़ दिया जाए तो बाकी सभी असंगठित क्षेत्र में कार्यरत हैं, जहां लोगों को कार्यकाल के लिहाज से कोई सुरक्षा नहीं है, कोई लाभ नहीं मिलते, कोई कानूनी अनुबंध नहीं है और इस तरह कम वेतन या मनमाने ढंग से निकाले जाने के खिलाफ कोई सुरक्षा नहीं है।
कृष्णा ने कहा कि सरकारी नौकरियों में नियुक्ति और पदोन्नति में जाति आधारित आरक्षण हमेशा विवाद का विषय रहा है और इनकी व्यवस्था भारत के आजाद देश बनने के कुछ ही समय बाद कर दी गई थी। उन्होंने कहा कि हाल के दशक में अर्थशास्त्र और राजनीति के बलों ने इस विवाद को और बिगाड़ दिया है। ऐसा इसलिए है क्योंकि निजी क्षेत्र नई नौकरियों में इजाफा नहीं कर पाया है जिसके परिणामस्वरूप सरकारी पदों की मांग पहले से कहीं ज्यादा है।
उन्होंने कहा, पांच लाख से ज्यादा लोग हर साल भारतीय प्रशासनिक सेवा के लगभग 100 पदों के हर साल प्रतिस्पर्धा करते हैं। इसके अलावा वर्ष 1990 में, भारत की केंद्र सरकार ने नौकरियों में आरक्षण को अन्य पिछड़ा वर्ग के एक अपर्याप्त ढंग से परिभाषित वर्ग तक विस्तार दे दिया है।
कृष्णा ने कहा, कौन सा समूह पिछड़ा कहलाने के लायक है, यह बात संदेहास्पद ही है और इसे निष्पक्ष तरीके से लागू किए जा सकने वाले स्पष्ट मानकों पर निर्भर रखने के बजाय प्रमुखत: वोट हासिल करने की जुगत में लगे नेताओं पर छोड़ दिया जाता है। यह विडंबना है कि आगे बढ़ने के लिए जातियां इस मांग के साथ आंदोलन करती हैं कि उन्हें पिछड़ा घोषित कर दिया जाए।
उन्होंने कहा, जब जाति के आधार पर आंदोलन करने वालों को प्रेरित करने वाले आर्थिक तर्क विभिन्न दलगत संगठनों के राजनैतिक तर्क से मिल जाते हैं तो फिर वह अशांति व्याप्त हो जाना स्वाभाविक ही है, जो कि आज हमें गुजरात में दिखाई दे रही है।