विश्व साहित्य की प्राचीनतम कृति वेद वैदिक विद्याओं का उद्भव स्थान है। वेदों में वास्तुशास्त्र विषयक अनेक प्रसंग इतस्तत: बिखरे पड़े हैं। वेद में वास्तु के अधिष्ठाता देव का नाम वास्तोष्पति है। आम-धारण है कि, वैदिक कालीन मनुष्य भवन निर्माण कला से अनभिज्ञ थे अथवा वैदिक ग्रन्थों में वास्तुविज्ञान का कोई व्यवस्थित स्वरुप उपलब्ध नहीं होता, किन्तु वैदिक साहित्य का विधिवत अध्ययन करने पर यह धारणा निर्मूल सिद्ध होती है।
वास्तु शास्त्रोपयोगी साहित्य में चारों वेद, रामायण, महाभारत, अष्टाध्यायी, अर्थशास्त्र, जैन व बौद्ध ग्रन्थ, आगम, तन्त्र, पुराण एवं बृहत्संहिता आदि ग्रन्थों से इस शास्त्र के उद्भव एवं विकास को इंगित करने वाली पर्याप्त सामग्री मिलती है वैदिक वांग्मय से पूर्व का कोई लिखित प्रमाण नहीं मिलता।
ऋग्वेद काल से आरम्भ करके अथर्ववेद तथा शतपथ ब्राह्मण काल तक वास्तुशास्त्र क्रमश: विकसित हुआ। अथर्ववेद का वास्तुसूक्त जिस परिस्थिति का वर्णन करता है, उससे स्पष्ट है कि उस समय उच्चकोटि के भवन, प्रासाद, दुर्ग, गिरिदुर्ग, जलान्तर्गत भवन आदि का निर्माण होता था। शतपथ ब्राह्मण में नगर-निर्माण के अन्तर्गत चौड़ी-चौड़ी सड़कें,जल निष्कासन नालियां, दुर्ग व भवन निर्माण, जल, वायु तथा प्रकाश का उत्तम प्रबन्ध, नगर के अन्तर्गत उद्यान-वाटिका तथा नगर निर्माण निमित्त उत्तम व्यवस्था के साक्ष्य मिलते हैं, जो गृहवास्तु व नगरवास्तु के विकास का प्रतीक माना जा सकता है।
रामायण में अयोध्या तथा लंका के वर्णन में उच्चस्तरीय वास्तुविज्ञान का प्रयोग वास्तुशास्त्र के विकास का प्रबल प्रमाण है। इस काल में समुद्र पर सेतु का निर्माण तत्सामयिक वास्तुविज्ञान के विकास का अनूठा उदाहरण है। यह त्रेता युग में वास्तुशास्त्र के विकास का स्वरुप है। द्वापरयुग में महाभारतकालीन देवशिल्पी विश्वकर्मा तथा दैत्यशिल्पी मय के चमत्कार का नमूना इन्द्रप्रस्थ-निर्माण, युधिष्ठिर का सभा-भवन, द्वारिका नगरी, हस्तिनापुर आदि का वर्णन तत्सामयिक वास्तुशास्त्रीय विकास के अद्वितीय दृष्टान्त है। भारतीय वांग्मय में महाभारत तक का काल विकास का काल माना जाता है।
डॉ. सुभाष चन्द्र मिश्र
ज्योतिष विभागाध्यक्ष सोमैया संस्कृत विद्यापीठ