केदारनाथ जाने की प्रबल इच्छा क्यों हो रही थी इसका मेरे पास कोई जवाब नहीं था। किसी तीर्थ पर जाने में मुझे कोई विशेष रुचि कभी नहीं थी। पर केदारनाथ की बात ही अलग है। मेरे पति माइकल तीर्थ आदि जाने में विश्वास नहीं करते हैं। जब मैने उन्हें अपनी इच्छा बतायी तो उनका जवाब था- हां, और वहां जाकर, जिंदगी और कूड़ा फैलना- मैं उनकी भावना को समझती थी और उनसे सहमत भी थी। पर्यावरण के प्रति उनकी संवेदनशीलता से मैं अनभिज्ञ नहीं हूं। लोग तीर्थ पर तो जाते है, पर वहां की सफाई पर ध्यान नहीं देते हैं। अधिकतर तीर्थ स्थान कूडे़ के ढेर बन गये हैं। सभी तीर्थ स्थानों पर संचालन समितियां तो है, पर कोई भी कूड़ा प्रबंधन की ओर ध्यान नहीं देता हैं। अत: हर ओर आपको गंदगी और घूरे मिल जायेंगे।
केदार की ओर
पर्यावरण संरक्षण में मैं भी विश्वास करतीं हूं, पर केदार जाना एक अलग ही विषय था। धीरे-धीरे, मैं माइकल को समझाने में कामयाब हो गयी कि केदार जाने में मेरा कोई विशेष अभिप्राय है। उन्होंने जाने का वचन तो दे दिया, पर चलने का कोई समय नहीं निर्धारित किया।
कई महीने बीत गए, बार-बार याद दिलाने के बाद आखिर हमने जाने का दिन तय कर ही लिया, पर जाने के दो दिन पूर्व बारिश शुरू हो गयी। हिमालय की ऊंची चोटियों पर मौसम की पहली बर्फ गिर गयी। पहाड़ों पर बारिश में यात्रा करना खतरों से खेलना है। पहाड़ गिरने से जगह-जगह रास्ते बन्द हो गये थे।
सफर की दास्तां
प्रस्थान के दिन सुबह उठने पर साफ मौसम और नीले आसमान में सूर्य भगवान ने अपनी मुस्कान बिखेरते हुए हमारा स्वागत किया। हमने चैन की सांस ली और घर से निकल गए। हरी घास और बारिश से धुले हुए पेड़ों से ढके पर्वत पन्ने से तराशे लग रहे थे। रास्ते में हमें कहीं भी सड़क बन्द नहीं मिली। हम उत्तरकाशी लम्ब गांव होते हुए पीपल डाली पर बने पुल से भागीरथी पार कर मंदाकिनी नदी की घाटी में पहुंचे। पूरा दिन गाड़ी में सफर करते बीता।
मन्दिर की चढ़ाई
हम सूरज निकलने से पहले ही ऊपर मन्दिर की ओर चढ़ने लगे। जल्दी चलने का एक ही कारण था पहाड़ों की तेज धूप में चढ़ते समय व्यक्ति जल्दी थक जाता है, इसलिए जितना सफर सूर्योदय के पहले तय हो जाये उतना ही अच्छा रहता है। 12000 फुट की ऊंचाई पर अत्यधिक ठंड होती है साल में छ: महीने यह स्थान बर्फ से ढके रहते हैं। इस कारण से यहां घास और कुछ प्रकार के फूलों के अलावा कोई पेड़ पौधे नहीं देखने को मिलते हैं। मंदिर की चढ़ाई में करीब आधे रास्ते तक तो सड़क वनों के बीच से हो के जाती है पर उसके बाद सारे रास्ते छाया के लिए पथ के किनारे टीन की चादरों से बने हैं। होटल और चाय की दुकानों के अलावा कुछ नहीं है।
दर्शनार्थियों की लम्बी कतार
शिव लिंग के निकट ही शंकराचार्य जी की प्रतिमा भी स्थापित है। हमने कुछ अगरबत्तियां जलाकर शिव लिंग और प्रतिमा दोनो की विधिवत पूजा की और कुछ देर ध्यान लगा कर बैठ गए। कुछ देर तो शान्ति रही फिर यात्रियों का एक बड़ा ग्रुप आ गया, वे आपस में बातें कर रहे थे जिससे हमारा ध्यान भंग हो गया हमने अपनी पूजा समाप्त की और प्रद्क्षिणा कर के बाहर जाने लगे, तो पास में खड़े हुये साधु ने मुझे प्रसाद के रूप में रुद्राक्ष दिया।