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छत्तीसगढ़: प्रकृति और संस्कृति की समृद्ध विरासत

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Jan 1 2016 8:34PM | Updated Date: Jan 1 2016 8:34PM
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प्राय: जाने-माने पर्यटन स्थलों के आकर्षण के चलते ऐसे कई महत्वपूर्ण सैरगाह सैलानियों से छूट जाते हैं, जो वास्तव में आदर्श सैरगाह होते हैं। छत्तीसगढ़ की अनोखी सांस्कृतिक विरासत एवं प्राकृतिक विविधता का आधार वहां के ऐतिहासिक स्मारक, प्राचीन मंदिर बौद्धस्थल तथा हरे-भरे पहाड़, झरने, नदियां, वन्य जीवन एवं गुफाएं हैं, जो किसी भी यायावर को आकर्षित करने में पूर्णतया सक्षम हैं।


पिछले वर्ष अंतरराष्ट्रीय व्यापार मेले में घूमते हुए जब मैं छत्तीसगढ़ पवेलियन के पर्यटन सूचना पटल पर पहुंचा तो वहां लगे पर्यटन स्थलों के सुंदर चित्र देखकर ऐसा लगा जैसे वे मुझे मौन निमंत्रण दे रहे हों। पटल से पूरी जानकारी प्राप्त करने के कुछ दिन बाद ही मैंने छत्तीसगढ़ भ्रमण का कार्यक्रम बना लिया। प्राचीन समय में छत्तीसगढ़ क्षेत्र को दक्षिण कोसल के रूप में जाना जाता था। प्राचीन इतिहास के अनुसार विंध्याचल के दक्षिण में स्थित कोसल जनपद की उत्तरी कोसल से भिन्नता दशार्ने के लिए इसे दक्षिण कोसल कहते थे। मान्यता यह भी है कि भगवान राम के पुत्र कुश का कौशल राज्य क्षेत्र यही था। 14वीं शताब्दी में जब यहां रायपुर शाखा के कलचूरि राजाओं का प्रभुत्व था, उससे पूर्व ही इसे छत्तीसगढ़ कहा जाने लगा था। इस नाम के संबंध में कुछ भिन्न मत है।

आधार है रायपुर
सभी स्थलों को एक बार में देख पाना संभव न था, इसलिए पहले हमने मध्य छत्तीसगढ़ की यात्रा का निश्चय किया। रायपुर शहर को आधार बना कर मध्य छत्तीसगढ़ आसानी से घूमा जा सकता है। इसलिए मैं छत्तीसगढ़ एक्सप्रेस से रायपुर के लिए रवाना हुआ। रायपुर में होटल बेवीलोन में मेरे ठहरने की व्यवस्था थी। स्टेशन से मैंने वहीं के लिए टैक्सी पकड़ी। दिल्ली की ठिठुरती ठंड की तुलना में इस शहर का कम सर्द मौसम राहत देने वाला था। दोपहर तक सफर की थकान दूर कर लेने के बाद मैंने छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े शहर रायपुर को देखने का कार्यक्रम बनाया। राजधानी होने के अलावा यह शहर औद्योगिक, शैक्षणिक एवं सांस्कृतिक दृष्टि से भी काफी समृद्ध है। कभी यह दक्षिण कोसल की राजधानी था।

कभी राजधानी था सिरपुर
अगले दिन सुबह 8 बजे हमारे गाइड आशीष ने होटल रिसेप्शन से फोन कर कहा कि टैक्सी तैयार है। कुछ देर बाद ही हम लोग सफर पर निकल पड़े। राष्ट्रीय राजमार्ग नं. 6 से होकर हम अपने गंतव्य सिरपुर की ओर बढ़ रहे थे। रायपुर से सिरपुर की दूरी 84 किमी. है। सिरपुर महानदी के तट पर बसा एक छोटा-सा कस्बा है, जहां पुरातात्विक महत्व के कई स्मारक मौजूद हैं। किसी समय सिरपुर भी दक्षिण कोसल की राजधानी रह चुका है।

महाप्रभु का जन्म स्थल
राजिम से 14 किमी दूर चंपारण नामक एक अन्य धार्मिक स्थल है। यह भी महानदी के तट पर ही स्थित है। चंपारण 15वीं शताब्दी के महान भारतीय दार्शनिक एवं धर्मगुरु महाप्रभु बल्लभाचार्य की जन्मस्थली है। उन्होंने भागवत पुराण के आधार पर शुद्ध द्वैत मतानुसार पुष्टि मार्ग का प्रवर्तन किया था। चंपारण में हमने बल्लाभाचार्य के अनुयायियों द्वारा बनवाया गया भव्य मंदिर भी देखा। इस मंदिर के निकट ही चंपकेश्वर महादेव मंदिर है। इसमें स्थापित शिवलिंग तीन भागों में विभाजित है। जनवरी-फरवरी में गुरु बल्लभाचार्य की जयंती पर यहां हर साल भव्य समारोह होता है।

एक और खजुराहो
अगले दिन हमारा लक्ष्य था छत्तीसगढ़ का खजुराहो। कवर्धा होते हुए हमें भोरमदेव पहुंचना था। गोंड जनजाति के उपास्य भोरमदेव का मंदिर हरी-भरी मैकाल पहाड़ियों के मध्य स्थित है। यह दक्षिण कोसल की वास्तुकला का उत्कृष्ट नमूना है। भगवान शिव को समर्पित इस मंदिर में शास्त्रीय विधान के अनुरूप मंडप अंतराल और गर्भगृह निर्मित है। शिखर पर कलश स्थापित है। मंदिर के तीन द्वार हैं, जिन पर अर्धमंडप बने हैं। हर अर्धमंडप में चार स्तंभ है। मंदिर के गर्भगृह पर चमकदार काला पत्थर लगा है। गर्भगृह में छोटा सा शिवलिंग स्थापित है। भोरमदेव मंदिर की सबसे बड़ी विशेषता इसकी बाह्य दीवारों पर बनी मूर्तियां हैं। इन मूर्तियों में कई मिथुन मूर्तियां हैं, जिनके कारण इसे छत्तीसगढ़ के खजुराहो की संज्ञा दी जाती है।

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