रत्न, प्राचीन काल से ही मनुष्य के आकर्षण का केंद्र रहे हैं। देवी-देवता भी रत्नों के आकर्षण से अछूते नहीं रहे। समुंद्र मंथन के समय भी रत्न प्रकट हुए थे। इसमें कौस्तुभ मणि प्रमुख थी। इसे श्री विष्णु जी ने अपने कंठ में धारण किया।
मूंगा, मोती समुद्र से ही उत्पन्न होते हैं। हमारी पृथ्वी हीरा, पन्ना, मणिक, पुखराज, नीलम आदि रत्नों की खानों से भरी हुई है। ज्योतिष गणना के आधार पर ज्योतिषविद् विभिन्न रत्न धारण करने की सलाह देते हैं। इनका उद्देश्य जातक की कुंडली में स्थित दोषों और इनके कारण उत्पन्न कष्टों को दूर करना और सुख समृद्धि की प्राप्ति कराना होता है।
यहां एक प्रश्न उत्पन्न होता है कि क्या सभी मनुष्य (स्त्री-पुरुष) रत्न धारण कर सकते हैं। इस प्रश्न पर लोगों में मतभेद हैं। कुछ इसकी सलाह इस कारण देते हैं ताकि ग्रहों को आवश्यकतानुसार बलवान किया जा सके। कुछ उन ग्रहों का उपाय बताकर रत्न धारण कराते हैं, जैसे मंगल खराब है तो मूंगा धारण करें, यदि शनि बिगड़ा है तो नीलम धारण करें।
रत्न, ग्रहों को बलवान करने के लिए धारण करने चाहिए, न कि खराब ग्रहों को शांत करने के लिए। रत्न, ग्रहों को बलवान करते हैं न कि उन ग्रहों के खराब फल को दूर करते हैं। यहां एक प्रश्न और उठता है कि रत्न धारण करने मात्र से जिस ग्रह का वह रत्न है, वह ग्रह बलवान कैसे हो जाता है। इसे एक प्रयोग से समझा जा सकता है।
आप एक कांच का पिरामिड लें और उसमें एक तरफ से सूर्य के प्रकाश को प्रवेश कराएं तो पाएंगे कि दूसरी तरफ से सात रंग की रोशनी बाहर निकलती है। अब आप किसी रंग विशेष का पिरामिड लें और उसमें से एक तरफ से सूर्य की किरणें प्रवेश कराएं तो पाएंगे कि इस बार दूसरी तरफ से केवल उसी रंग का प्रकाश बाहर निकलेगा, जिस रंग का पिरामिड है।
यही कार्य रत्न भी करते हैं। जब सूर्य का प्रकाश इन रत्नों पर पड़ता है तो वह इनसे गुजरकर हमारे शरीर में प्रवेश करता है और उस ग्रह के यथोचित गुणों का हमारे शरीर में संचार कर देता है सभी ग्रहों में सूर्य प्रधान हैं। मान-सम्मान, प्रसिद्धि एवं राजकीय नौकरी बिना सूर्य के प्रभाव के नहीं मिलती है। अत: गलत रत्नों को धारण करने से लाभ की जगह हानि, मान-सम्मान की जगह अपमान, जीवन की जगह मृत्यु भी प्राप्त हो सकती है।