18 Apr 2024, 18:10:17 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

कृष्ण के प्यारे सखा और उनके शिष्यों में से एक उद्धवजी ने एक बार प्रश्न पूछा, हे माधव! जब से तुम गोकुल और वृंदावन की गलियों को छोड़ कर मथुरा आए हो, तब से मैं देख रहा हूं कि तुम व्यवहार तो सब करते हो, बात भी सब के साथ करते हो, ज्ञान भी बहुत देते हो, पर तुम्हारी आंखों में कुछ ऐसा है, जिससे पता चलता है कि तुम अभी भी हृदय में वृंदावन को भूले नहीं हो।
 
 
ऐसा वहां था ही क्या? झोपड़े ही तो थे और गरीबी थी। यहां महल हैं, माता-पिता हैं, सिंहासन है, सुख-सुविधाएं हैं। फिर भी तुम वैसे खुश नहीं दिखते, जैसा मैंने सुना कि तुम वृंदावन में खुश रहते थे। कृष्ण कहते हैं, उद्धव! तू तो ज्ञानी है, वेदपाठी है। पर एक बात को तू समझ ले कि जिस चीज का आनंद मैं ले रहा हूं, उसे कहते हैं प्रेम। मथुरा में राजभोग हैं, सुख-सुविधाएं हैं, दुनिया भर के पदार्थ हैं, सिंहासन है, सेवा करने को नौकर और दास भी हैं, जन्म देने वाले माता-पिता हैं, नाना-नानी भी हैं, परंतु प्रेम का जो रंग वृंदावन में था, जो समर्पण, जो आराधना, जो श्रद्धा, जो प्रीति वहां थी, वह यहां नहीं है। मैं उन्हीं प्रेम भरे दिनों को याद करता रहता हूं। देखिए, सिर्फ भक्त ही भगवान को याद नहीं करते, सच तो यह है कि भगवान भी अपने अनन्य भक्त को उतना ही याद करते हैं। सिर्फ शिष्य ही गुरु को याद नहीं करते, अगर शिष्य योग्य हो, उत्तम हो तो
गुरु भी उसका स्मरण करते हैं। सभी चाहते हैं कि भगवान की कृपा मिल जाए, पर कभी किसी ने सोचा है कि उस कृपादृष्टि के लायक बनने के लिए कुछ करना भी होता है? यदि वह लियाकत आप में है तो फिर आशीर्वाद मांगना नहीं पड़ता, बरसता है। जिसके हृदय में प्रेम का भाव उमड़ता है, उसके कुछ भौतिक, बाह्य लक्षण भी दिखने लगते हैं। प्रेम मन में है और मन सूक्ष्म है, इसलिए प्रेम भी सूक्ष्म है।
  • facebook
  • twitter
  • googleplus
  • linkedin

More News »