हमारी संस्कृति में आध्यात्मिकों की नजर में मोक्ष, एक सर्वोच्च कल्पना है। मोक्ष मिलना चाहिए ऐसी हर व्यक्ति की आंतरिक भावना होती है। किंतु हमारे ऋषि-मुनियों ने जिन चार पुरूषार्थों का महत्व दिया है, उनमें मोक्ष चौथा पुरूषार्थ है। धर्म, अर्थ और काम अन्य तीन पुरूषार्थ हैं। इन तीन पुरूषार्थों के लिए काम करते करते ही मोक्ष के बारे में सोचना होता है। यह जरूरी नहीं है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए घर-परिवार, कामकाज छोड़कर जंगलों में घूमते रहो। अपना निहित काम पूरा करते हुए, अपना उत्तरदायित्व सही ढंग से पूरा करते हुए भी मोक्ष हमें सहजता से मिल सकता है। संत सावता माली थे। वे विठ्ठल के बड़े भक्त थे। किंतु अपनी जिम्मेदारी छोड़कर उन्होंने कभी ईश्वर की आराधना नहीं की।
वे कहते थे -'हम माली हैं। खेती करना,अनाज-फल-सब्जियां उगाना हमारा काम है। हम मोट चलाते हैं, तब पेड़ों को पानी मिलता है। हम अपने स्व-कर्म में रत होते हैं, तो मोक्ष अपने पैरों से हमें मिलने आता है। सावता माली की कही हुई दो बातें ध्यान में रखना जरूरी है। माली जो स्व-धर्म करता है, उससे पूरे विश्व को आनंद मिलता है और इसलिए माली मोक्ष के करीब जाता है। हम किसके लिए क्या करते हैं, इसपर हमारे काम की केवल कीमत ही तय नहीं होती, बल्कि सार्वकालिक मूल्य भी तय होता है। ऐसा मूल्य केवल समर्पण भावना में होता है।