महावीर स्वामी की जब भी बात होती है तो वहां अहिंसा अनिवार्य रूप से उपस्थित हो जाती है, लेकिन उसके साथ ये सवाल भी तैरने लगते हैं कि क्या अहिंसा नकारात्मक है या इसका सकारात्मक स्वरूप भी है? अहिंसा के शब्दार्थ में जाएं तो उसका नकारात्मक स्वरूप सामने आता है। अहिंसा यानी किसी की हिंसा नहीं करना, किसी को दुख नहीं देना, किसी पर आक्रमण नहीं करना, किसी का हक नहीं मारना। इसे जीवन के साथ जोड़ते हुए कहा गया, मांसाहार नहीं करना, अनछाना पानी नहीं पीना आदि।
हिंसा से आदमी का बहुत पुराना परिचय है। मानव प्रगति की पुरातत्वीय अवधारणा आदिम जीवन से जुड़ी हुई है। तब नरभक्षी होने के सबूत मिले थे, लेकिन जावा-मानव तक आते-आते हृदय में अहिंसा के अंकुर फूटने लगे। लगभग आठ हजार वर्ष पूर्व के मानव में अहिंसा का और विकास हो जाता है। वह पारिवारिक जीवन जीता है, पांच हजार वर्ष पूर्व धातुयुगीन सभ्यता में आदमी सामाजिक जीवन जीना सीख लेता है। सीरिया और बेबीलोनिया, मिस्र और भारत के तत्कालीन शिलालेख उस युग के विकसित जीवन का स्पष्ट चित्र देते हैं।
ढाई हजार वर्ष पूर्व भगवान महावीर और बुद्ध ने व्यापक परिवेश में अहिंसा को प्रतिष्ठा दी। शायद महावीर पहले इतिहास-पुरुष हैं, जिन्होंने वनस्पति जगत के प्राणि चेतना के समान प्राणवान होने की घोषणा की। वे अहिंसा को पदार्थ जगत तक ले गए, हालांकि पदार्थ अपने में अचेतन है, इसलिए इसमें क्या हिंसा और क्या अहिंसा? लेकिन सवाल हिंसा या अहिंसा का नहीं, अपनी चित्त की संवेदना का था।