एक सेठ के घर में एक ब्राह्मण रसोइया था। उसे ठाकुर कहा जाता था। माहेश्वरी परंपरा में तिलक दो तरह से किए जाते हैं - खड़ा तिलक और आड़ा तिलक। सेठजी खड़ा तिलक करते थे और ठाकुर आड़ा। सेठ ने ठाकुर का तिलक देखा तो कहा- 'आड़ा तिलक क्यों करते हो? कल से खड़ा तिलक करना।' ठाकुर कुछ बोला नहीं। दूसरे दिन वह फिर आड़ा तिलक करके आया। सेठ ने उसे टोका। तीसरे दिन भी तिलक वैसे ही रहा। सेठ का पारा चढ़ गया। वह बोला- 'कही बात पर ध्यान क्यों नहीं देते?' ठाकुर हाथ जोड़कर चला गया।
चौथे दिन ठाकुर आया। उसके ललाट पर फिर तिलक आड़ा था। सेठ क्रोध में बोला- 'ठाकुर! मैंने तुमसे क्या कहा था, कुछ समझ में आया या नहीं?' ठाकुर ने कहा- 'जी, सब समझ रहा हूं।' सेठ ने पूछा-'तिलक कैसे किया है?' ठाकुर ने कुर्ता ऊपर कर पेट दिखा दिया। वहां खड़ा तिलक किया हुआ था। सेठ बोले- 'यह क्या मजाक कर रहे हो?' ठाकुर ने शांत भाव से कहा- 'सेठ जी, नौकरी पेट करता है, सिर नहीं। मेरे पास अपना
दिमाग है और मैं दिमाग से सोचता हूं, अपनी आस्था के अनुरूप तिलक करता हूं। पेट को भूख लगती है। उसके लिए आपकी नौकरी करता हूं। इसी भावना से आपका तिलक पेट पर लगा लिया है।'
यह छोटी-सी कहानी बड़ा रहस्य खोलती है। जहां मत-मजहबों को लेकर छोटी-छोटी बातों में व्यक्ति उलझ जाता है, वहां धर्म की बात गौण हो जाती है और उपासना प्रमुख हो जाती है। संसार में जितने मत, मजहब या संप्रदाय हैं, वे सब बरकरार रहें, कोई कठिनाई नहीं होगी। जरूरत धर्म के वास्तविक स्वरूप को स्थापित करने की है।