हमारे ऋषियों ने तमाम तरह के जीवों, उनकी ध्वनि और विभिन्न आकृतियों के बीच के इस संबंध को समझा और उसमें महारत हासिल की। ऋग्वेद, सामवेद, यजुर्वेद और अथर्ववेद का ज्यादातर हिस्सा इसी संबंध के बारे में है। ध्वनि में महारत हासिल करके आप आकृति के ऊपर भी महारत हासिल कर लेते हैं।
यही है मंत्रों का विज्ञान, जिसकी दुर्भाग्यवश गलत तरीके से विवेचना की गई है और उसका दुरुपयोग भी किया जाता है। ये व्यक्तिपरक विज्ञान है। स्कूल- कॉलेज में जाकर इसका अध्ययन नहीं किया जा सकता। इसे समझने के लिए बहुत गहरे समर्पण और जुड़ाव की आवश्यकता है। इसी में डूब कर आपको जीना पड़ेगा, नहीं तो कोई प्राप्ति नहीं होगी।
इसमें अगर आप कोई डिग्री हासिल करना चाहते हैं या फिर इसे आप एक व्यवसाय के रूप में चुनना चाहते हैं तो इससे आपको कुछ भी हासिल नहीं होगा। कुछ हासिल करने के लिए तो आपको इसके प्रति खुद को समर्पित करना होगा। तभी कुछ हो सकता है। आधुनिक शिक्षा विज्ञानी ऐसा मानते हैं कि शिक्षा- खेल, संगीत और कहानियों के माध्यम से दी जानी चाहिए।
वैदिक काल में शिक्षा इसी तरह से दी जाती थी। विज्ञान के महत्वपूर्ण पहलुओं को भी कहानी के रूप में समझाया जाता था। दुर्भाग्यवश बाद में लोग इस प्रक्रिया को जारी नहीं रख पाए। वैदिक प्रणाली ने हमेशा मानवीय सोच को बेहतर बनाने और उसका स्तर उठाने पर जोर दिया है, सिर्फ ज्ञान बढ़ाने पर नहीं।