दान का सीधा सा अर्थ है देना। लेकिन इसका जिक्र जब भी किसी सराहनीय और अवश्य किए जाने लायक काम के तौर पर किया जाता है तो उसका अर्थ है किसी की सेवा सहायता के लिए कुछ देना। इस तरह देना कि जिसे वह दिया गया है, उसे किसी न किसी तरह समृद्ध और समर्थ बनाता हो। देने का यह भाव खुद की दुनिया का फैलाव करता है।
अपना दायरा उन लोगों तक फैला देता है, जिन्हें दिया जा रहा है। दान किसी वस्तु पर से अपना अधिकार समाप्त करके दूसरे का अधिकार स्थापित करना भी है। यह भी जरूरी है कि दी हुई वस्तु के बदले कुछ लिया न जाए और न ही उम्मीद की जाए। यह प्रक्रिया तभी पूरी होती है, जब दी हुईं वस्तु पर पाने वाले का अधिकार स्थापित हो जाए। वस्तु पर पाने वाले का अधिकार होने से पूर्व ही यदि वह वस्तु नष्ट हो गई, तो वह दान पूरा हुआ नहीं माना जाता। ऐसी परिस्थिति में दान का पुण्यफल भी नष्ट होता है। दान देने की वजह, तरीके और जिसे दिया जा रहा है उसकी जरूरत का विचार किए बिना किए गए दान को तीन श्रेणियों में समझा गया हैं।
सात्विक, राजस और तामस के में दान के तीन प्रकार कहे गए हैं। जो दान पवित्र स्थान में और उपयुक्त समय में बिना किसी स्वार्थ के जरूरतमंद को दिया जाए वह सात्विक है। शर्त यह भी है कि दान ग्रहण करने वाले ने दाता पर किसी भी तरह का उपकार न किया हो। अपने पर किए किसी उपकार के बदले या किसी फल की उम्मीद से जो दिया जाता है, वह राजस दान कहा जाता है। बिना सत्कार के या अपमानित करते हुए जो दान दिया जाता है, वह तामस दान कहा गया है।
स्तर के बाद स्वरूप के भेद से भी कायिक, वाचिक और मानसिक इन भेदों से पुन: दान के तीन भेद गिनाए गए हैं। संकल्प पूर्वक जो स्वर्ण, रजत आदि दान दिया जाता है वह कायिक दान है। अपने निकट किसी भयभीत व्यक्ति के आने पर जो अभय दान दिया जाता है वह वाचिक दान है। जप और ध्यान प्रवृत्ति का जो अर्पण किया जाता है उसे मानसिक दान कहते हैं।