29 Mar 2024, 02:43:38 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

 आध्यात्मिक उन्नति के लिए पिंड से ब्रह्मांड तक की यात्रा तय करनी पड़ती है। इसका अर्थ है कि, जो तत्व ब्रह्मांड में यानी शिव में हैं, उनका पिंड में यानी जीव में होना आवश्यक है। तब ही जीव शिव से एकरूप हो सकता है। पानी की बूंद में तेल का जरा-सा भी अंश हो, तो वह पानी में पूर्णरूप से घुल नहीं सकता, उसी प्रकार जब तक शिवभक्त शिव की सर्व विशेषताएं आत्मसात नहीं कर लेता, तब तक वह शिव से एकरूप नहीं हो सकता अर्थात उसकी सायुज्य मुक्ति नहीं हो सकती। अत: शिवरात्रि के अवसर पर आप विशेषताएं व उपासना जानकर शिवजी से एकरूप होने का प्रयास करें। इस हेतु शिवजी की कुछ विशेषतापूर्ण जानकारी पता होना चाहिए। 

 

आप जानते ही हैं कि शिवजी के विश्रामकाल को महाशिवरात्रि कहा जाता है। भगवान शिवरात्रि के प्रहर विश्राम करते हैं। उस प्रहर को, अर्थात् शिवजी के विश्रामकाल को महाशिवरात्रि कहा जाता है। पृथ्वी का एक वर्ष अर्थात स्वर्गलोक का एक दिन। पृथ्वी स्थूल है। स्थूल को ब्रह्मांड में प्रवास करने में अधिक समय लगता है। देवता सूक्ष्म होते हैं, इस कारण उनकी गति अधिक होती है। इसलिए उन्हें ब्रह्मांड में प्रवास करने में कम समय लगता है। इसी कारण पृथ्वी व देवता में एक वर्ष का अंतर है।

 

शिवजी के विश्रामकाल में शिवजी के तत्व का कार्य बंद हो जाता है, अर्थात उस समय शिवजी समाधि-अवस्था में होते हैं। शिवजी की समाधि-अवस्था, अर्थात शिवजी के साधना का समय। इसलिए उस समय शिवतत्व विश्व अथवा ब्रह्मांड के तमोगुण अथवा हलाहल को स्वीकार नहीं करता। ऐसे में, ब्रह्मांड में हलाहल का व अनिष्ट शक्तियों का प्रभाव बहुत अधिक प्रमाण में बढ़ता है। उसका परिणाम हम पर न हो, इसलिए अधिकाधिक शिवतत्व आकृष्ट करने वाले बिल्वपत्र, सफेद फूल, रुद्राक्ष की मालाएं इत्यादि शिवपिंडी पर अर्पण कर वातावरण से शिवतत्व आकृष्ट किया जाता है। ऐसा करने से अनिष्ट शक्तियों का बढ़ा हुआ प्रभाव हम पर नहीं होता और हमें उससे कष्ट भी नहीं होता।

 

माघ कृष्ण चतुर्दशी को महाशिवरात्रि कहते हैं। महाशिवरात्रि का व्रत काम्य तथा नैमित्तिक उपलब्धि के लिए रखा जाता है। इस व्रत के तीन अंग हैं - उपवास, पूजा तथा जागरण। शिव इस व्रत के प्रधान देवता हैं। इस व्रत की विधि इस प्रकार बताई गई है - माघ कृष्ण त्रयोदशी को एकभुक्त रहें । चतुर्दशी के दिन प्रात:काल में व्रत का संकल्प करें। सायंकाल में नदी पर अथवा तालाब पर शास्त्रोक्त स्नान करें। भस्म और रुद्राक्ष धारण करें। शिवजी का ध्यान करें । तदोपरांत षोडसोपचार पूजा करें। भव-भवानी प्रीत्यर्थ तर्पण करें। प्रदोषकाल में शिवजी के मंदिर जाएं। नाममंत्र जपते हुए शिवजी को एक सौ आठ कमल अथवा बिल्वपत्र अर्पण करें। पुष्पांजलि अर्पण कर, अर्घ्य दें। पूजा समर्पण, स्तोत्रपाठ तथा मूलमंत्र का जाप हो जाए, तो शिवजी के मस्तक पर चढ़ाए गए फूल लेकर अपने मस्तक पर रखें और शिवजी से क्षमायाचना करें। शिवरात्रि की रात्रि के चारों प्रहरों में चार पूजा करने का विधान है, जिसे यामपूजा कहा जाता है।

 

प्रत्येक यामपूजा में देवता को अभ्यंग स्नान कराएं, अनुलेपन करें, साथ ही धतूरा, आम तथा बिल्वपत्र अर्पण करें । चावल के आटे के 26 दीप जलाकर देवता की आरती उतारें। पूजा के अंत में 108 दीप दान करें । प्रात:काल स्नान कर, पुन: शिवपूजा करें। पारण अर्थात व्रत की समाप्ति के लिए ब्राह्मण भोजन कराएं। (पारण चतुर्दशी समाप्त होने से पूर्व ही करना योग्य होता है।) ब्राह्मणों से आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद व्रत संपन्न होता है। जब बारह, चौदह अथवा चौबीस वर्ष व्रत को हो जाए, तो उसका विधि पूर्वक उद्यापन करें।   

 

शिवजीके नाम जप का महत्व : महाशिवरात्रि पर नित्य की तुलना में 1000 गुणा कार्यरत शिव तत्व का लाभ पाने हेतु ‘ॐ नम: शिवाय’ नामजप अधिकाधिक करें ।                           

(सनातन संस्था, वाराणसी)

 

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