बच्चे खेल को पूरी मौज-मस्ती से खेलते हैं, लेकिन अगर यहीं खेल उनकी कई परेशानियों और बीमारी को दूर करने का साधन बन जाएं, तो कितना बढ़िया होता है। इसे प्ले थैरेपी कहते हैं। सायकोलॉजिस्ट बच्चों की खेल में रूचि और पसंद को देखकर उनका इलाज करते हैं।
बच्चों द्वारा खेले जाने वाले खेल उनके विकास का अहम हिस्सा होते है और साथ ही बच्चे जो भी देखते और सुनते हैं, खेल के समय उसकी नकल करके देखते है। अगर कहा जाए तो बच्चे खेल-खेल में ही अपनी उम्र को ज्यादा समय तक बनाए रखने का तरीका ढूंढ लेते हैं।
खेल खेल में इलाज
जब बच्चे किसी खेल को खेलते हैं, तो तब उनका दिमाग काम कर रहा होता है, जिससे उनका दिमाग तेज रहता है।
बच्चे खेल के माध्यम से बच्चे अपने सामने आने वाली किसी चुनौती या डर का सामना करने के लिए अपने आप को तैयार कर लेते हैं।
खेल का महत्व तब बढ़ जाता है, जब आपका बच्चा किसी व्यावहारिक या मानसिक समस्या से ग्रस्त होता है और इसकी खेल से वह इस स्थिति से बाहर निकल जाता है।
जो बच्चे मानसिक समस्याओं से गुजर रहे होते हैं, उनके लिए प्ले थैरेपी काफी जरूरी होती है।
प्ले थैरेपी के माध्यम में बच्चे अपने अकेलेपन को दूर कर लेते हैं।
इससे वह गुस्से पर कंट्रोल करना भी सीख जाते हैं।
प्ले थैरेपिस्ट बच्चों के साथ खेलते हैं और उनके साथ दोस्तों जैसा व्यवहार करते हैं, जिससे बच्चे अपने दिल की बाते दिल में रखने से बचें।
अभिभावकों का सकारात्मक व्यवहार भी है जरूरी
प्ले थेरेपी द्वारा थेरेपिस्ट बच्चों की मानसिक समस्याओं का पता तो लगा सकता है, किंतु उन समस्याओं को दूर करने की सबसे बड़ी जिम्मेदारी उनके अभिभावकों की होती है, क्योंकि बच्चे ज़्यादातर समय उनके साथ ही रहते हैं। अभिभावकों को चाहिए कि वे बच्चों को बताएं कि वे उनसे कितना प्यार करते हैं, उनके लिए वे कितने महत्त्वपूर्ण हैं।
जब आपका बच्चा किसी बात से डर जाए तो उन्हें समझाएं, न कि और डराने का प्रयत्न करें। अगर आपका बच्चा कुछ अच्छा कर रहा हो या उसने किसी स्पर्धा में कोई पुरस्कार प्राप्त किया हो, तो उसकी सराहना करें। यह न देखें कि प्रतियोगिता कितनी छोटी या बड़ी थी। इससे उसमें ख़ुद के महत्वपूर्ण होने का भाव जागेगा।
‘प्ले थेरेपी’ कब ज़रूरी?
अगर बच्चों में नीचे दी गई कोई समस्या हो तो प्ले थेरेपी से उसे दूर किया जा सकता है।
यदि बच्चे या टीनएजर्स उपेक्षित, समाज या परिवार से कटे हुए हों।
वे बच्चे जो पारिवारिक या सामाजिक समस्याओं से ग्रस्त हों, मसलन- माता-पिता के बीच अलगाव होने से मानसिक तौर पर परेशान या किसी नए परिवेश में ख़ुद को ढालने के लिए प्रयत्नशील हों।
यदि यौन शोषण के शिकार हों।
वे बच्चे जो बीमार हों या किसी ऐसी शारीरिक व्याधि से जूझ रहे हों, जो उनके सामान्य विकास में अवरोधक हो।
जो एज्युकेशनल प्रेशर का शिकार हों।
वे बच्चे जो भावनात्मक और व्यावहारिक परेशानियों का सामना कर रहे हों, जैसे- मानसिक तनाव, डिप्रेशन या चिड़चिड़ापन, ज़्यादा क्रोध आना इत्यादि।