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दलित राष्ट्रपति के लिए दलितों में घमासान!

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Jul 4 2017 11:48AM | Updated Date: Jul 4 2017 11:48AM
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-शंभूनाथ शुक्ल
देश के वरिष्ठ राजनैतिक विश्लेषक
 
यह विचित्र स्थिति बन गई है और संवैधानिक पेच भी  है कि भारत देश के सर्वोच्च पद के लिए अब दलितों के बीच ही घमासान मचा है। सत्तारूढ़ एनडीए जिसकी अगुआई भाजपा कर रही है, ने राष्ट्रपति पद के लिए एक दलित राजनीतिक रामनाथ कोविंद को उतारा है।  कोविंद फिलहाल बिहार के राज्यपाल हैं और उनका राजनीतिक योगदान यही है कि वे दो बार राज्यसभा के सदस्य रहे तथा भाजपा की अनुसूचित जनजाति प्रकोष्ठ के अध्यक्ष भी। जब वे अनुसूचित जाति जनजाति प्रकोष्ठ में थे तब उन्होंने रिश्वत कांड में बंगारू लक्ष्मण का समर्थन किया था। 
 
इसके अलावा उनकी कोई राजनीतिक उपलब्धि नहीं है। जिस कानपुर  के वे रहने वाले हैं वहां भी उन्हें जानने वाला कोई नहीं है। उनकी दूसरी उपलब्धि यह है कि वे अनुसूचित जाति के हैं। बीजेपी को अपना राष्ट्रपति चुनवाने के लिए महज 48 हजार वोटों की कमी है जिसे पूरा करने को तेलांगना कांगेस और अन्ना द्रमुक का पन्नीरसेल्वम गुट पहले से ही तैयार हैं और अब बिहार के मुख्यमंत्री ने कोविंद को जिताने की अपील कर भाजपा की राह और आसान कर दी है। चूंकि कांग्रेस नहीं चाहती कि भाजपा को इस पद के लिए वाकओवर मिल जाए इसलिए उसने अपने कोटे से बाबू जगजीवन राम की सुपुत्री और पूर्व केंद्रीय मंत्री तथा पंद्रहवीं लोकसभा में अध्यक्ष रह चुकीं मीरा कुमार को अपना उम्मीदवार बनाया है। संयोग से मीरा कुमार भी दलित जाति की हैं और महिला होने का टैग तो उन पर है ही।
 
भारत में राष्ट्रपति का चुनाव अमेरिका के राष्ट्रपति के चुनाव की तरह सहज और आसान प्रक्रिया नहीं है। यहां पर राष्ट्रपति को जनता नहीं बल्कि विधायक और सांसद चुनते हैं। और इसके लिए जो प्रक्रिया अपनाई जाती है वह काफी जटिल है। मसलन राज्य के विधायकों की संख्या का राज्य की जनसंख्या में भाग दे दिया जाता है। जो बचा उसमें हजार का गुणा कर विधायक के मत की वैल्यू निकाल ली जाती है। मगर राज्य की जनसंख्या के लिए जो मानक माना गया है वह 1971 है और तब से यह जनसंख्या लगभग दो गुनी हो गई है। राष्ट्रपति को कुल 4896 वोटर चुनते हैं और उनमें से 776 सांसद और 4120 विधायक हैं। इन सब के मतों का मूल्य 1098882 है। इसका आधा 549442 होता है और जिस किसी को इतने वोट मिलेंगे वही जीता हुआ माना जाएगा। यहां पर ध्यान रखा जाए कि राष्ट्रपति का चुनाव ईवीएम मशीनों से नहीं बल्कि बाकायदा मतपत्रों से होता है।  
 
दोनों पक्ष यह दिखाना चाहते हैं कि किसका दलित असली दलित। मगर यह नहीं सोचा गया कि आजादी के 70 साल बाद भी हमारी सरकारें यदि दलित को दलित स्थिति से उबार नहीं पाईं और उलटे उसका शर्मनाक प्रदर्शन कर रही हैं तो इसमें किसकी जीत है। प्रोफाइल के लिहाज से दोनों दलित की स्थिति से ऊपर हैं। रामनाथ कोविंद सुप्रीम कोर्ट में वकील रहे हैं और 1978 में प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के निजी सहायक भी। जाहिर है बस उनकी जाति ही दलित है। वे 1991 में बीजेपी में आए और 1994 से 2006 तक राज्यसभा सदस्य रहे। जिस कानपुर की डेरापुर तहसील के वे रहने वाले हैं वहां से उनका नाता
 
1976 में ही टूट गया था जब वे दिल्ली आ गए थे सिविल सर्विस की तैयारी करने। न तो आज तक अपने गांव के किसी भी दलित को मुख्यधारा में लाने के लिए उन्होंने प्रयास किया न उनके गांव तो दूर उनके आसपास का दलित उस हैसियत को छू पाया। इसी प्रकार मीरा कुमार जिन बाबू जगजीवन राम की बेटी हैं वे 1937 में ही बिहार विधान सभा के विधायक चुनी गई थी। अब अगर मीरा कुमार को राष्ट्रपति का उम्मीदवार बनाना ही था तो उपयुक्त समय 2007 था जब कांग्रेस सत्ता में थी और उसने प्रतिभा पटेल को राष्ट्रपति बनाया था। यह तो सर्वविदित ही है कि सत्तारूढ़ दल अपनी मर्जी का राष्ट्रपति जितवाने में सफल रहती है।
 
अब लाख कहा जाए कि कांग्रेस ने एनडीए के प्रत्याशी को वाकओवर नहीं मिलने के लिए अपना उम्मीदवार खड़ा किया मगर यह तो संदेश गया ही कि कांग्रेस ने हराने के लिए मीरा कुमार का उपयोग किया। यह लड़ाई अब दलित बनाम दलित बन गई है। इससे दलितों का कोई भला नहीं होगा। उलटे संदेश यह जाएगा कि भारत के दलितों में भी एकता नहीं है। दलित बनाम दलित की लड़ाई हो गई है। अब सब के कच्चे चिट्ठे भी खुलने लगे हैं और यह भी बताया जाने लगा है कि मीरा कुमार के पति ओबीसी हैं तो भला वे दलित कैसे हो गईं। तथा कोविंद ने अपनी पत्नी की मृत्यु के तीन महीने के भीतर ही अपनी शिष्या तथा उम्र से सोलह साल छोटी युवती से विवाह रचा लिया था। 
 
यह भी कि दोनों में से एक तो आईएफएस रहीं और दूसरे सज्जन तीन बार यूपीएससी में बैठने के बाद भी कलेक्टर नहीं बन पाए। मगर अब वे राष्ट्रपति बन जाएंगे। यकीनन राजनीतिक दल इनके नाम पर अपनी राजनीति की रोटियां सेंक रहे हैं और दलित कमजोर हुआ जा रहा है। यह कितने शर्म की बात है कि जब सहारनपुर समेत कई जगह दलितों पर अमानुषिक और जातिवादी अत्याचार हो रहे हों। और वहां जाने वाले दलित लेखकों और बुद्घिजीवियों को उत्तर प्रदेश सरकार उठवा रही हो ऐसे में बाबा साहेब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के नाम पर सत्तारूढ़ भाजपा दलित कार्ड खेल रही हो। आज की तारीख में सच तो यह है कि न तो रामनाथ कोविंद दलित चेहरा हैं न मीरा कुमार। इनसे बेहतर चेहरा तो मायावती का होता। अगर राजनीतिक दलों को दलित राजनीति खेलनी ही थी तो मायावती का नाम बढ़ाते।
 
हालांकि मीरा कुमार के जीतने का एक ही रास्ता अभी शेष है और वह है जनसंपर्क क्योंकि राष्ट्रपति चुनाव के लिए व्हिप जारी करने की परंपरा नहीं है। और कोई भी सांसद अथवा विधायक पार्टी के उम्मीदवार के अलावा भी वोट करने को स्वतंत्र है। यानी किस तरह से मीरा कुमार अपना प्रचार करती हैं और कैसे रामनाथ कोविंद विधायकों और सांसदों से मिलते हैं सब कुछ इसी पर निर्भर करेगा मगर इसमें कोई शक नहीं कि जब देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी हों और किसी सांसद या विधायक की अपनी स्वतंत्रता कुछ भी नहीं हो तो भला कैसे संभव है कि कोई सांसद या विधायक पार्टी लाइन के विरुद्घ वोट कर आए।  ऐसा सिर्फ एक बार ही हुआ है जब कांग्रेस के अधिकृत प्रत्याशी नीलम संजीव रेड्डी के विरुद्घ स्वयं कांग्रेस के विधायक सांसदों ने वोट किए थे। पर तब स्वयं प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने उप राष्ट्रपति और निर्दलीय प्रत्याशी वीवी गिरि के लिए अंतरात्मा की आवाज पर वोट करने की अपील की थी और इस तरह 1969 में वीवी गिरि निर्दलीय प्रत्याशी के तौर पर जीते जरूर थे मगर थे वे प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की पसंद के ही।
 
 राष्ट्रपति दरअसल अपने यहां एक शोभा का पद ही है। इसलिए वही राजनीतिक राष्ट्रपति के लिए प्रत्याशी बनाए जाते हैं जो सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके होते हैं। वह हर संसद के हर सत्र को संबोधित जरूर करता है पर वह तामझाम के साथ आता है और चला जाता है। वह प्रधानमंत्री द्वारा लिए गए फैसलों का अनुमोदन करता है और अगर वह मना कर दे तो प्रधानमंत्री दोबारो संसद से वह बिल पास कराकर अनुमोदन हेतु भेज सकता है।  स्वयं राष्ट्रपति पर भी महाभियोग चल सकता है इसलिए हर राष्ट्रपति अपने विरुद्घ ऐसे अभियोग को लाए जाने से डरता है। भारत के संविधान के लिहाज से भारत के सारे कार्यकारी अधिकार प्रधानमंत्री के पास हैं और राष्ट्रपति आमतौर पर प्रधानमंत्री के फैसलों को मोहर लगाता है। लेकिन उसे यह अधिकार भी है कि वह प्रधानमंत्री की मनमर्जी के विरुद्घ उसके अध्यादेशों को रोक सकता है।
 
यद्यपि अधिकांश राष्ट्रपति प्रधानमंत्री के बिलों पर चुपचाप मोहर लगाते रहे हैं। प्रथम राष्ट्रपति डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद को तो जवाहर लाल नेहरू चाहते ही नहीं थे कि राष्ट्रपति बने पर कांग्रेस पार्टी के दबाव में उन्हें स्वीकार करना पड़ा। शायद यही कारण था कि डॉक्टर राजेंद्र प्रसाद के गुजरते ही नेहरू ने सर्वपल्ली डॉक्टर राधाकृष्णन को पसंद किया। राष्ट्रपति को अपना रबर स्टांप बनाने की कोशिश होती रही है। ज्ञानी जैलसिंह के रिटायर होते ही राजीव गांधी ने तत्कालीन उप राष्ट्रपति वेंकट रमन को राष्ट्रपति बनवाया। क्योंकि वेंकटरमन उनकी पसंद के भी थे। इसी तरह वेंकटरमन के बाद नरसिंहराव सरकार ने उप राष्ट्रपति शंकरदयाल शर्मा को राष्ट्रपति बनाने पर सहमति दी। 
 
उनके बाद केआर नारायणन बने जो शंकरदयाल शर्मा के वक्त उप राष्ट्रपति रह चुके थे। मगर केआर नारायणन के बाद उप राष्ट्रपति को राष्ट्रपति बनाए जाने की परंपरा समाप्त हो गई। बाजपेयी सरकार ने अब्दुल कलाम को पसंद किया और फिर मनमोहन सरकार ने प्रतिभा पाटिल को जो तब राजस्थान की राज्यपाल थीं। दलित राष्ट्रपति के लिए पहला नाम केआर नारायणन का आया था जिन्हें 21 अगस्त 1992 को उप राष्ट्रपति बनाया गया था और उनके नाम का प्रस्ताव वीपी सिंह ने रखा था।  बाद में वे राष्ट्रपति चुने गए और उनको 95 प्रतिशत मत मिले थे। हालांकि उनके नाम का प्रस्ताव उस देवगौड़ा सरकार ने किया था जो स्वयं ही संसद में अल्पसंख्यक थी मगर दलित के नाम पर सारे दलों ने मिलकर उन्हें जिताया। तब सिर्फ शिवसेना ने ही उनका विरोध किया था। इस तरह के.आर नारायणन देश के पहले दलित राष्ट्रपति चुने गए थे। मगर इस तरह का विवाद पहले कभी नहीं हुआ। 
 
इस बार तो दोनों ही प्रतिद्वंदी दलित हैं और दलित के नाम पर सारा खेल हो रहा है। 16 वीं लोकसभा का चुनाव दो साल बाद होना है और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के पाले में ऐसी कोई उपलब्धि नहीं है जिसके बूते उनका चुना जाना तय माना जाए। इसीलिए वे भावनात्मक मुद्दे उठा रहे हैं। दलित सबसे बड़ा भावनात्मक मुद्दा है और कोई भी दल खुल्लम-खुल्ला दलित नेता का विरोध नहीं कर सकता। यही कारण है कि दलित की काट के लिए उसने भी  दलित कार्ड खेला है। मगर कांग्रेस और विपक्षी दलों में फूट अधिक है और सत्ता पक्ष के दलित के नाम पर उनके यहां फूट तो है नहीं उलटे वे विरोधी दलों के नेताओं और उनकी फूट का लाभ भी खूब उठा रहे हैं। इसमें कोई शक नहीं कि रामनाथ कोविंद की जीत पर संदेह नहीं किया जा सकता और इसका एकमात्र श्रेय किसी को मिलना चाहिए तो विपक्षी दलों की परस्पर सिरफुटव्वल को।
 
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