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जन्मदिन: 92 के हुए भारत रत्न अटल, जानें उनकी पूरी कहानी

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Dec 25 2016 7:40PM | Updated Date: Dec 25 2016 7:40PM
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नई दिल्‍ली। 25 दिसंबर को भारत रत्न पूर्व अटल बिहारी वाजपेयी 92 वर्ष के हो गए है। केंद्र सरकार अटल के जन्मदिन को गुड गर्वनेंस डे के तौर पर मना रही है। अटल बिहारी वाजपेयी यूं तो भारतीय राजनीतिक के पटल पर एक ऐसा नाम है, जिन्होंने अपने व्यक्तित्व व कृतित्व से न केवल व्यापक स्वीकार्यता और सम्मान हासिल किया, बल्कि तमाम बाधाओं को पार करते हुए 90 के दशक में बीजेपी को स्थापित करने में भी अहम भूमिका निभाई। यह वाजपेयी के व्यक्तित्व का ही सम्मोहन था कि बीजेपी के साथ उस समय नए सहयोगी दल जुड़ते गए, जब बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद दक्षिणपंथी झुकाव के कारण उस जमाने में बीजेपी को राजनीतिक रूप से अछूत माना जाता था।

कुल 12 बार बनें सांसद 
अटल बिहारी वाजपेयी 1951 से ही भारतीय राजनीति में शामिल है, उन्होंने 1955 में पहली बार लोकसभा का चुनाव लड़ा था लेकिन हार गए थे। इसके बाद 1957 में वह सासंद बनें। अटल बिहारी वाजपेयी कुल 10 बार लोकसभा के सांसद रहें, वहीं वह दो बार 1962 और 1986 में राज्यसभा के सांसद भी रहें।
 
नाराज़गी लेकर पोखरण परमाणु का किया परीक्षण 
11 और 13 मई 1998 को पोखरण में पांच भूमिगत परमाणु परीक्षण विस्फोट कर अटल बिहारी वाजपेयी ने सभी को चौंका दिया। यह भारत का दूसरा परमाणु परीक्षण था, इससे पहले 1974 में पोखरण 1 का परीक्षण किया गया था। दुनिया के कई संपन्न देशों के विरोध के बावजूद अटल सरकार ने इस परीक्षण को अंजाम दिया, जिसके बाद अमेरिका, कनाडा, जापान और यूरोपियन यूनियन समेत कई देशों ने भारत पर कई तरह की रोक भी लगा दी थी जिसके बावजूद अटल सरकार ने देश की जीडीपी में बढ़ोतरी की। पोखरण का परीक्षण अटल बिहारी वाजपेयी के सबसे बड़े फैसलों में से एक है। 
 
दुनिया में हिंदी का बजाया डंका 
1977 में मोरार जी देसाई की सरकार में अटल विदेश मंत्री थे, वह तब पहले गैर कांग्रेसी विदेश मंत्री बनें थे। इस दौरान उन्होंने संयुक्त राष्ट्र अधिवेशन में उन्होंने हिंदी में भाषण दिया था और दुनियाभर में हिंदी भाषा को पहचान दिलवाई, हिंदी में भाषण देने वाले अटल भारत के पहले विदेश मंत्री थे।
 
वाजपेयी के करीबी लोगों का कहना है कि उनका मिशन पाकिस्तान के साथ संबंधों को सुधारना था और इसके बीज उन्होंने 70 के दशक में मोरारजी देसाई की सरकार में बतौर विदेश मंत्री रहते हुए ही बोए थे। लाहौर शांति प्रयासों के विफल रहने के बाद वर्ष 2001 में वाजपेयी ने जनरल परवेज मुशर्रफ के साथ आगरा शिखर वार्ता की एक और पहल की, लेकिन वह भी मकसद हासिल करने में सफल नहीं रही।
 
घर की टेंशन से बेफ़िक्र नेताओं की लंबी फेहरिस्त
1984 के लोकसभा चुनावों में बीजेपी की करारी हार के बाद संघ परिवार को वाजपेयी के ख़िलाफ खड़े होने का मौका मिल गया। संघ नेताओं ने वाजपेयी की जगह 1986 में आडवाणी को पार्टी का अध्यक्ष बना दिया। फिर राम मंदिर निर्माण आंदोलन के बाद आडवाणी की लोकप्रियता का ग्राफ जिस तेज़ी से बढ़ा, वह वाजपेयी और उनके परिवार को ज़्यादा पसंद नहीं आया. वाजपेयी अयोध्या के लिए रथयात्रा के ख़िलाफ थे।
 
वाजपेयी बोले, गुजरात में हमसे गलती हुई
पाकिस्तान की अपनी मुहर है और वो चल रहा है। लेकिन शक इतना गहरा है। हो सकता है कि मैं वापस जाऊं और मुझसे सवाल किए जाएं कि आप गए थे आफ़िशियल विजिट पर, मीनार ए पाकिस्तान जाने की क्या जरूरत थी? मैं जवाब दूंगा।
 
वाजपेयी ने कहा कि पाकिस्तान एक हकीकत है अब। वाजपेयी की नीति में पाकिस्तान को लेकर कभी फ्लिप-फ्लाप नहीं रहा। आज देश में सेनाओं के नाम पर एक से बढ़कर एक भाषण देने की होड़ सी लगी रहती है और उनके बलिदान को अपना सीना चौड़ा करने के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है, लेकिन सेना के जवानों को लेकर सबसे अहम फैसला वाजपेयी सरकार ने किया - शहीदों के सम्मान का फ़ैसला।
 
पहली बार तय किया गया कि शहीदों के शवों को उनके गांव, उनके घर तक पहुंचाया जाएगा और पूरे राजकीय सम्मान के साथ उनका अंतिम संस्कार किया जाएगा।
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