नई दिल्ली। महान क्रांतिकारी भगत सिंह को अंग्रेजों ने 23 मार्च 1931 को लाहौर में फांसी दे दी थी। वह देश की आजादी के लिए ब्रिटिश सरकार से लड़ रहे थे। लेकिन भारत की आजादी के 70 साल बाद भी सरकार उन्हें दस्तावेजों में शहीद नहीं मानती।
अप्रैल 2013 में केंद्रीय गृह मंत्रालय में भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को लेकर एक आरटीआई डाली। जिसमें पूछा कि भगत सिंह, सुखदेव एवं राजगुरु को शहीद का दर्जा कब दिया गया। यदि नहीं तो उस पर क्या काम चल रहा है?
तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह को सफाई देनी पड़ी। राज्यसभा सांसद केसी त्यागी ने 19 अगस्त 2013 को सदन में यह मुद्दा उठाया। उन्होंने कहा कि गृह मंत्रालय के जो लेख और अभिलेख हैं उनमें भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को शहीद का दर्जा देने का काम नहीं हुआ।
तब संसदीय कार्य राज्य मंत्री राजीव शुक्ला ने कहा था कि ‘सरकार उन्हें बाकायदा शहीद मानती है और अगर सरकारी रिकार्ड में ऐसा नहीं है तो इसे सुधारा जाएगा। सरकार पूरी तरह से उन्हें शहीद मानती है और शहीद का दर्जा देती है। लेकिन ताज्जुब यह है अब तक सरकार ने इस बारे में कोई निर्णय नहीं लिया है’।
जब नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे तब मैंने भगत सिंह को शहीद घोषित करवाने के बारे में उनसे गांधी नगर में मुलाकात करके समर्थन मांगा था। उन्होंने भरोसा दिया था कि केंद्र में भाजपा की सरकार आई तो वह भगत सिंह को शहीद का दर्जा दिला देंगे। अब उनकी सरकार है लेकिन इस बारे में कार्रवाई आगे नहीं बढ़ी है’। वह सवाल पूछते हैं कि आखिर भगत सिंह शहीद क्यों नहीं हैं? क्या इसी दिन के लिए उन्होंने 23 साल की उम्र में फांसी का फंदा चूम लिया था?
सुखदेव, भगत सिंह की यादें
बरकत भगत सिंह की कोठरी में गया और वहाँ से उनका पेन और कंघा ले आया। सारे कैदियों में होड़ लग गई कि किसका उस पर अधिकार हो। आखिर में ड्रॉ निकाला गया।
भगत सिंह की खाकी रंग की कमीज
वॉर्डेन चरत सिंह भगत सिंह के खैरख़्वाह थे और अपनी तरफ से जो कुछ बन पड़ता था उनके लिए करते थे। उनकी वजह से ही लाहौर की द्वारकादास लाइब्रेरी से भगत सिंह के लिए किताबें निकल कर जेल के अंदर आ पाती थीं।
भगत सिंह के जूते
जिसे उन्होंने अपने साथी क्रांतिकारी जयदेव कपूर को तोहफे में दे दिया था भगत सिंह को फांसी दिए जाने से दो घंटे पहले उनके वकील प्राण नाथ मेहता उनसे मिलने पहुंचे। मेहता ने बाद में लिखा कि भगत सिंह अपनी छोटी सी कोठरी में पिंजड़े में बंद शेर की तरह चक्कर लगा रहे थे।
भगत सिंह की घड़ी
इसे उन्होंने अपने साथी क्रांतिकारी जयदेव कपूर को तोहफे में दे दिया था। राजगुरु के अंतिम शब्द थे, "हम लोग जल्द मिलेंगे।" सुखदेव ने मेहता को याद दिलाया कि वो उनकी मौत के बाद जेलर से वो कैरम बोर्ड ले लें जो उन्होंने उन्हें कुछ महीने पहले दिया था।
असेंबली बम केस में गोला बरामद किया था
लेकिन बेबे भगत सिंह की ये इच्छा पूरी नहीं कर सके, क्योंकि भगत सिंह को बारह घंटे पहले फांसी देने का फैसला ले लिया गया और बेबे जेल के गेट के अंदर ही नहीं घुस पाया।
टोपी सुखदेव की अक्सर पहना करते थे
भगत सिंह इन तीनों के बीच में खड़े थे। भगत सिंह अपनी माँ को दिया गया वो वचन पूरा करना चाहते थे कि वो फाँसी के तख्ते से 'इंकलाब ज़िदाबाद' का नारा लगाएंगे।
जेल की कठिन जिंदगी
भगत सिंह को किताबें पढ़ने का इतना शौक था कि एक बार उन्होंने अपने स्कूल के साथी जयदेव कपूर को लिखा था कि वो उनके लिए कार्ल लीबनेख की 'मिलिट्रिज़म', लेनिन की 'लेफ़्ट विंग कम्युनिजम' और अपटन सिनक्लेयर का उपन्यास 'द स्पाई' कुलबीर के जरिए भिजवा दें।
भगत सिंह जेल की कठिन जिंदगी के आदी हो चले थे। उनकी कोठरी नंबर 14 का फर्श पक्का नहीं था। उस पर घास उगी हुई थी। कोठरी में बस इतनी ही जगह थी कि उनका पाँच फिट, दस इंच का शरीर बमुश्किल उसमें लेट पाए।
तीन क्रांतिकारी
मेहता के जाने के थोड़ी देर बाद जेल अधिकारियों ने तीनों क्रांतिकारियों को बता दिया कि उनको वक्त से 12 घंटे पहले ही फांसी दी जा रही है। अगले दिन सुबह छह बजे की बजाय उन्हें उसी शाम सात बजे फांसी पर चढ़ा दिया जाएगा।
भगत सिंह मेहता द्वारा दी गई किताब के कुछ पन्ने ही पढ़ पाए थे। उनके मुंह से निकला, "क्या आप मुझे इस किताब का एक अध्याय भी ख़त्म नहीं करने देंगे?"
भगत सिंह ने जेल के मुस्लिम सफ़ाई कर्मचारी बेबे से अनुरोध किया था कि वो उनके लिए उनको फांसी दिए जाने से एक दिन पहले शाम को अपने घर से खाना लाएं।