नई दिल्ली। सुप्रीम कोर्ट ने डाउन सिंड्रोम से पीड़ित अपने 26 सप्ताह का गर्भ गिराने की अनुमति मांगने वाली एक महिला की याचिका को नामंजूर कर दी कि हमारे हाथों में एक जिंदगी है। अदालत ने कहा कि 37 वर्षीय महिला के स्वास्थ्य की जांच के लिए गठित चिकित्सा बोर्ड की रिपोर्ट के अनुसार गर्भावस्था जारी रखने में मां को कोई खतरा नहीं है। शीर्ष अदालत के न्यायाधीश एसए बोबडे और न्यायाधीश एल नागेश्वर राव की पीठ ने टिप्पणी की कि हालांकि हर कोई जानता है कि डाउन सिंड्रोम से पीड़ित बच्चा निसंदेह रूप से कम बुद्धिमान होता है, लेकिन वे ठीक होते हैं। पीठ ने कहा कि रिपोर्ट के मुताबिक भ्रूण में मानसिक और शारीरिक चुनौतियां हो सकती हैं। लेकिन चिकित्सकों की सलाह गर्भ गिराने का समर्थन नहीं करती। इस रिपोर्ट के साथ, हमें नहीं लगता कि हम गर्भ को समाप्त करने की अनुमति देने वाले हैं। एक जिंदगी हमारे हाथ में हैं। अदालत ने कहा-इन परिस्थितियों में, वर्तमान सलाह के अनुसार गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति देना संभव नहीं है।
डाउन सिंड्रोम एक ऐसा अनुवांशिक विकार है जो कि बौद्धिक और शारीरिक क्षमता प्रभावित करता है। पीठ ने 23 फरवरी को मुंबई स्थित केईएम अस्पताल के चिकित्सकों के बोर्ड का गठन कर महिला की जांच कर उसकी स्थिति और मेडिकल टर्मिनेशन आॅफ प्रेगनेंसी की इजाजत के बारे में सलाह देने के लिए रिपोर्ट पेश करने का निर्देश दिया था। महाराष्ट्र की इस महिला ने गर्भावस्था समाप्त करने की इजाजत मांगने के लिए न्यायालय का दरवाजा खटखटाते हुए कहा था कि जन्म के समय बच्चे में गंभीर मानसिक और शारीरिक विकार होने के साथ ही उसकी खुद की जान को भी खतरा है। महिला ने अपनी याचिका में यह भी कहा था कि यह विकार बच्चे में मानसिक और शारीरिक गतिरोध पैदा कर सकता है और बच्चा सामान्य और स्वस्थ जीवन नहीं जी सकेगा। कानून भ्रूण और माता की जान को खतरा होने के बावजूद 20 सप्ताह के बाद गर्भावस्था को समाप्त करने की अनुमति नहीं देता। इस मामले से मिलते जुलते एक अन्य मामले में शीर्ष न्यायालय ने 22 वर्षीय एक महिला के जीवन पर संकट को देखते हुए सात फरवरी को 24 सप्ताह के गर्भ को गिराने की इजाजत दे दी थी।