देवरिया। पूर्वी उत्तर प्रदेश के देवरिया से करीब 32 किमी दूर पड़ोसी जिला गोरखपुर के चौरीचौरा क्षेत्र में स्थित तरकुलही देवी मंदिर आजादी की लड़ाई का गवाह है। जानकर बताते हैं कि तरकुलही देबी मंदिर का क्षेत्र आजादी के पूर्व डुमरिया रियासत के अधीन आता था। बताया जाता है कि यहां से होकर गोर्रा नदी बहता थी तथा यहां पर एक तरकुल के पेड़ के नीचे दो पिंड थे। इसी पिड को डूमरी रियासत के बाबू बंधू सिंह अपने आराध्य देवी के रूप में पूजा करते थे।
आजादी के मतवाले बाबू बन्धू सिंह ने अपने राज घराने का त्याग कर उस समय घने जंगल में आकर देवी की पूजा करने लगे। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम 1857 की लड़ाई में बाबू बन्धु सिंह ने अंग्रेजों के दात खट्टे कर दिये थे जिस कारण अंग्रेज उनको अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानने लगे।
बंधू सिंह गोरिल्ला युद्ध में माहिर थे। कहा जाता है कि आजादी के मतवाले बन्धू सिंह गोरिल्ला युद्ध में अंग्रेज सिपाहियों को पकड़ कर मंदिर पर ले जाकर उनका बलि चढ़ा देते थे। अंग्रेज सिपाहियों की घटती संख्या और जंगल से गायब हो रहे सिपाहियों की पड़ताल अंग्रेज अफसर करने लगे थे। जब अंग्रेज अफसरों को सच्चाई का पता चला तो वे बन्धू सिंह को खोजने लगे। अंग्रेज अफसरों ने एक मुखबिरी पर उनको पकड़ लिया था और 12 अगस्त 1857 को गोरखपुर शहर के अलीनगर में उनको खुलेआम फांसी दी गई।
बताया जाता है कि अंग्रेजों ने छह बार उनको फांसी चढ़ाया, लेकिन हर बार उनकी फांसी का फंदा तरकुलही देवी के प्रताप से टूट जाता था। बार-बार फांसी का फन्दा टूटने से अंग्रेज अफसर बौखला गये। उनको और मजबूत फंदे से फांसी पर लटका रहे थे तो बाबू बन्धू सिंह ने माता का कर कहा कि माता अब आप हमारा साथ छोड़ दें। इस बार अंग्रेजों ने उनको फांसी देने में सफल हो गए।
बन्धू सिंह के फांसी पर लटकते ही जिस तरकुल के पेड़ के नीचे माता का पिंड था,उसका मत्था टूटकर गिर गया और उसमें से खून की धारा बहने लगी। इसके बाद माता का नाम तरकुलहा देवी के रूप में प्रसिद्ध हो गयी। यहां बलि चढाकर माता को प्रसन्न करने की प्रथा भी है।
शारदीय नवरात्रि और चैत नवरात्रि में यहां भक्तों का भारी जमावड़ा होता है जिसमें पूर्वाचल से लेकर देश के कई हिस्सों से श्रद्धालु आते हैं। मान्यता है कि जो भी भक्त यहां सच्चे ह्रदय से मन्नत मांगते हैं, माता उनकी मन्नतों को पूरा करती हैं।