>>निर्माता- नीना गुप्ता, दीपा साही
>>निर्देशक- केतन मेहता
>>संगीत- संदेश शांडिल्य, हितेश सोनिक
>>कलाकार- नवाजुद्दीन सिद्दीकी, राधिका आप्टे, तिग्मांधु धूलिया, पंकज त्रिपाठी
मुंबई। बॉलीवुड में अब अपनी खास छवि बना चुके अभिनेता नवाजुद्दीन सिद्दीकी सिंजीदा अभिनय के लिए जाने जाते है। नवाजुद्दीन को अब कैसा भी किरदार मिले वह उसमें जान फूंक देते है। चाहे वो “किक” फिल्म का “अरबपति विलेन” हो या “बजरंगी भाईजान” का “चांद नवाब”। अब केतन मेहता की फिल्म मांझी- द माउंटेन मैन में नवाजुद्दीन ने एक अलग छाप छोड़ी है।
फिल्म में एक संवाद है, भगवान के भरोसे नहीं बैठना चाहिए, क्या पता भगवान हमारे भरोसे बैठा हो। यही इस फिल्म के बारे में सब कुछ बताने का दम रखता है। केतन मेहता इंडस्ट्री के उन बेहतरीन निर्देशकों में शामिल हैं, जो बॉक्स ऑफिस के मिजाज के खिलाफ चलने का जज्बा रखते हैं।
मांझी- द माउंटेन मैन, यह एक फिल्म नहीं बल्कि ये सच्चे प्रेम की दास्तान है। जिसे निभाने में नवाजुद्दीन के पसीने छूट गए। इस फिल्म के माध्यम से बताया गया है कि कोई कैसे किसी को इतना प्यार कर सकता है कि वो पहाड़ का सीना चीरकर रास्ता बना दे। रिलीज से पहले ही यह फिल्म बिहार और यूपी में टैक्स फ्री हो चुकी है।
कहानी-
मांझी- द माउंटेन मैन की कहानी बिहार के एक छोटे से गांव गहलौर की है। इस कहानी का हीरो इसी गांव को 50-60 के दशक कावह युवा है, जिसे देश की आजादी के बाद भी कुछ नहीं मिला।
इसी गांव के छोटी जाति के दशरथ मांझी (नवाजुद्दीन सिद्दिकी) ने जब छुआछूत कानून के लागू होने की खबर लगने के बाद गांव के उच्च जाति के मुखिया ( तिग्मांशु धुलिया) को छूने की हिमाकत की तो उसे मुखिया के लठैतों ने मार-मार कर अधमरा कर दिया।
इसी बीच दशरथ मांझी की पत्नी फुगनिया (राधिका आप्टे) की चिकित्सा के अभाव में मौत हो जाती है। दशरथ को अहसास होता है कि अगर ऊंचे पहाड़ से गिरकर बुरी तरह से घायल हो चुकी फुगनिया को जल्दी से गांव से थोडी दूर बने सरकारी अस्पताल पहुंचा दिया जाता तो डॉक्टर उसकी जान बचा सकते थे। लेकिन दशरथ के गांव से उस छोर चंद किमी की दूरी बने अस्पताल तक पहुंचने के लिए सड़क न होने की वजह से उसे ऊंचे पहाड़ को पार करके अस्पताल तक जाना पड़ा था।
फुगनिया की मौत के बाद दशरथ की जिंदगी का बस एक ही मकसद रह गया। गांव के उस पास बने अस्पताल की दूरी कम करने के बीच बाधा बने पूरे पर्वत को काटकर रास्ता बनाना। 60 के दशक में मांझी अपने घर से एक रस्सा और एक हथोड़ा लेकर पहाड़ काटने के लिए निकला तो उसे खुद उसी के पिता ने ही पागल समझा, लेकिन दिन रात दुनिया की परवाह किए बिना पागलों की तरह मांझी पहाड़ तो़डने में लगा रहा।
निर्देशन-
केतन मेहता ने कहानी को आगे-पीछे ले जाकर प्रस्तुतिकरण को रोचक बनाना चाहा, लेकिन ऐसा हो नहीं पाया। ये कट्स चुभते हैं। साथ ही दशरथ की प्रेम कहानी के कुछ दृश्य गैर-जरूरी लगते हैं। पहाड़ भी छोटा-बडा होता रहता है। केतन मेहता प्रतिभाशाली निर्देशक हैं, लेकिन “मांझी द माउंटन मैन” में उनका काम उनके बनाए गए ऊंचे स्तर से थो़डा नीचे रहा है, बावजूद इसके उन्होंने बेहतरीन फिल्म बनाई है।
एक्टिंग-
नवाजुद्दीन सिद्दीकी अब हर रोल को यादगार बनाने लगे हैं। चाहे वो बदलापुर का विलेन हो या बजरंगी भाईजान का पत्रकार। मांझी के किरदार में तो वे घुस ही गए हैं। चूंकि नवाजुद्दीन खुद एक छोटे गांव से हैं, इसलिए उन्होंने एक ग्रामीण किरदार की बारीकियां खूब पकड़ी हैं।
राधिका आप्टे का नाम अब ऐसी अभिनेत्रियों में लिया जाने लगा है और हर तरह के रोल आसानी से निभा लेती हैं। मांझी की पत्नी के किरदार में उन्होंने सशक्त अभिनय किया है।