कलाकार: अन्नू कपूर, ओम पूरी, रवि किशन, हृषिता भट्ट, संजय मिश्रा, राहुल बग्गा
निर्देशक: विनोद कापड़ी
कहानी
फिल्म की कहानी राजस्थान की एक सच्ची घटना से प्रेरित है, जिसमें भैंस से कुकर्म के आरोप में एक युवक पर मुकदमा चलाया गया था। यह फिल्म बेमेल विवाह,जोखिम भरी प्रेम कहानी और गांव के पंचायतों के मध्यकालीन बर्ताव की दास्तान है। फिल्म की पृष्ठभूमि में हरियाणा का एक गांव टनकपुर है। टनकपुर का प्रधान सुआलाल गंदास (अनु कपूर) है, जो कि बूढ़ा और नपुंसक होता है, लेकिन अपने दौलत और प्रभाव के बल पर उसने अपने से काफी छोटी उम्र की लडक़ी माया (ऋषिता भट्ट) से शादी की होती है। अपनी नपुंसकता को लेकर उसे अपनी युवा बीवी के ताने भी सुनने पड़ते हैं। इसी चक्कर में वह अपने “मर्दानगी ताकत” को बढ़ाने के लिए नीम–हकीमों का चक्कर काटता रहता है और अपनी बीवी पर शक भी करता है। उसका शक सही भी होता है।
माया को गांव में बिजली ठीक करने वाले लडक़े अर्जुन (राजीव बग्गा) से प्यार हो जाता है, जोकि पुलिस में भरती होने की तैयारी भी करता है, इनके रिश्ते में सहानुभूति का पुट भी होता है। लेकिन इन दोनों का प्रेम ज्यादा दिनों तक छुपा नहीं रह पाता है और एक दिन सुआलाल दोनों को रंगे हाथों पकड़ ही लेता है। सबसे पहले वह अर्जुन के हाथ-पैर तुड़वा कर उसे बैलगाड़ी में बांध कर हवा में लटका देता है। लेकिन बदनामी के डर से सुआलाल एक कहानी गढ़ता है, जिससे लाठी भी ना टूटे और सांप भी मर जाए।
वह बाहर सार्वजनिक रूप से सबको बताता है कि अर्जुन ने उसकी भैंस “मिस टनकपुर” के साथ दुष्कर्म किया है। टनकपुर का प्रधान अपने पैसे और रुतबे के बल से थानेदार(ओम पूरी) को अपने साथ मिला लेता है और अर्जुन पर भैंस के साथ बलात्कार का मामला दर्ज हो जाता है। बाद में गांव की पंचायत जो की अपने आपको सभी अदालतों व कानून से ऊपर मानती है। आरोपी युवक को भैंस से शादी करने का हुक्म सुना देती है।
परदे पर सभी किरदार असल लगते हैं। अनु कपूर और ओम पुरी, संजय मिश्रा, रवि किशन जैसे अभिनेता निराश नहीं करते हैं। राहुल बग्गा अर्जुन के किरदार को बखूबी निभाते हैं, अपनी खामोशी और भाव से प्रभाव छोड़ते हैं। ऋषिता भट्ट इस फिल्म की कमजोर कड़ी हैं। वे माया जैसी किरदार के कशमश और पीड़ा को उभार पाने में नाकामयाब रही हैं। भैंस के सामने उनका दुखड़ा रोने वाला दृश्य बहुत प्रभावी हो सकता था, हालांकि स्क्रिप्ट में भी उनका किरदार उभर नहीं पाया है। भीड़ के दृश्यों में शायद हापुड़ जिले के ग्रामीणों का इस्तेमाल किया गया है, जो की दृश्यों को वास्तविक बनाने में मदद करते हैं।
निर्देशक विनोद कापड़ी के पास पत्रकारिता का लंबा अनुभव है। इसका असर उनके निर्देशकीय प्रस्तुतिकरण में भी साफ़ झलकता है, जो कहीं न कहीं उनकी सीमा भी बन जाती है। इससे पहले वे ‘अन्ना हजारे’ पर एक वृत्तचित्र और डॉक्यूमेंट्री फिल्म ‘शपथ’ भी बना चुके है। ‘शपथ’ को नेशनल अवॉर्ड भी मिल चुका है। इसमें देश में महिलाओं के लिए शौचालय की कमी का मुद्दा उठाया गया था। अपने एक इंटरव्यू में उन्होंने बताया था कि फिल्म बनाने की प्रेरणा उन्हें राजकुमार हिरानी से मिली है।
फिल्म में कई सामाजिक मुद्दों को छूने की कोशिश की गई है, जिसमें अंधविश्वास, बेमेल-शादी और उससे होने वाली समस्याओं, प्रभावशाली समूहों की दबंगियत, कमजोर समूहों की हताशा और इससे उपजी मजबूरियां और दब्बू सोच, खाप और पंचायतों की जकड़न, औरतों के साथ गैर-बराबरी का बर्ताव, लोकल राजनीति और इन सब में स्थानीय सरकारी मशीनरी की संलिप्तता जैसे मसले शामिल हैं। लेकिन फिल्म का अंत अपने आपको को देश में दर्ज होने वाले सिर्फ झूठे आरोपों और मुकदमों से जोड़ कर सीमित कर लेती है। निश्चित रूप से विनोद कापड़ी में मुद्दों की पकड़ और उसे समझने की दृष्टि है, बस उन्हें एक पत्रकार से आगे बढ़कर इसे सिनेमा की भाषा में ट्रांसलेट करने में अभ्यस्त होना पड़ेगा।