एक दिन तपोनिष्ठ कौशिक एक वृक्ष के नीचे बैठे हुए थे। वो वेद पाठ कर रहे थे। तभी उनके ऊपर एक पक्षी ने बीट कर दी। उन्होंने सिर उठाकर देखा तो वहां एक बगुला था।
कौशिश को बगुले पर बड़ा ही क्रोध आया। उन्होंने क्रोध भरी आंखों से उसको देखा तो जलकर भस्म हो गया। क्रोध जब शांत हुआ तो उन्हें बड़ा ही पछतावा हुआ।
वो भिक्षा मांगने के लिए पास ही के गांव की ओर चल दिए। जब वो एक घर के आगे भिक्षा के लिए खड़े थे तो उन्हे खड़े-खड़े देर हो गई। इसके बाद उस घर की गृहणी बाहर आई।
तपस्वी कौशिक क्रोध में थे तब गृहणी ने कहा कि, 'आपका क्रोध पति की सेवा में रत सती स्त्री का कुछ नहीं बिगाड़ सकता। 'महात्मा जी आप 'धर्म का मर्म' नहीं जानते हैं।
इसलिए यही ठीक रहेगा कि आप मिथिला के धर्मव्याघ का उपदेश सुनें। उस स्त्री का बात सुनकर तपस्वी कौशिक मिथिला चल दिए। मथुरा पहुंचने पर जब उन्होंने धर्म व्याघ को देखा तो वह चौंक गए।
धर्मव्याघ एक कसाई थे, जो दुकान पर बैठे मांस का विक्रय कर रहे थे। तपस्वी ऋषि ने बताया कि, 'एक स्त्री ने मुझे आपके पास भेजा है।' धर्मव्याघ खुश हो गए और उन महात्मा जी को अपने घर ले गए।
घर पहुंचकर धर्मव्याघ, तपस्वी कौशिक से बोले, 'वस्तुत-धर्म की परिभाषा नहीं की जा सकती है। कई स्थानों पर परस्पर विरोधावासी विचार देखकर बुद्धि भ्रमित हो जाती है। अत: कौन से कर्म करने योग्य हैं और कौन से कर्म छोड़ने वाले हैं। लेकिन यह सत्य है कि अपने परिजनों की सेवा सर्वोपरि है। यही धर्म का मर्म है।'