गुरु नानक भ्रमण करते हुए हरिद्वार पहुंचे। कोई धार्मिक पर्व था, शायद श्राद्धपर्व। गंगातट पर भारी भीड़ थी। श्रद्धालु लोग आते और स्नान करते। प्रात:काल का समय था। गुरु ने सोचा, स्नान के लिए इतना उपयुक्त स्थान कहां मिलेगा। वह भी गंगातट की ओर चल पड़े। वहां जाकर देखा कि एक व्यक्ति पूर्व की ओर देखते हुए जल उलीच रहा है। दूसरे व्यक्ति को देखा, तो वह भी पूर्व दिशा की ओर मुंह कर जल चढ़ा रहा था। नानकदेव ने देखा कि और दूसरे लोग भी इसी तरह अर्घ्य दे रहे थे।
तात्पर्य यह कि जो भी स्नान के लिए आता, वह तर्पण न भूलता। गुरु नानक ने यह देखकर एक व्यक्ति से पूछा, आप अभी क्या कर रहे थे? उस व्यक्ति ने कुछ रुखाई से कहा, पितरों का तर्पण कर रहे थे। गुरु ने पूछा, इस तरह पितरों को जल पहुंच जाता है क्या? जवाब मिला, जरूर पहुंच जाता है। नहीं पहुंचता, तो लोग व्यर्थ ही यह सब क्यों कर रहे हैं? गुरु नानक ने कुछ और नहीं पूछा। उन्होंने पहले स्नान किया, और फिर पीछे आकाश की ओर देखते हुए गंगा में खड़े होकर धारा से बाहर पानी उलीचने लगे। पास ही खड़े लोगों को अटपटा-सा लगा। उन्होंने पूछा, आप यह क्या कर रहे हैं? तर्पण ऐसे नहीं किया जाता है।
नानकदेव ने कहा, भाइयो, हमारे खेत पंजाब में हैं, उन्हें पानी दे रहा हूं। पास खड़े एक वृद्ध ने पूछा, गुरु जी, इतनी दूर यहां से पंजाब और वहां आपके खेत, भला पानी कैसे पहुंच जाएगा? गुरु जी ने कहा, पंजाब पितर लोक से अधिक दूर नहीं है। यदि आपका दिया पानी पितर लोक पहुंच कर पूर्वजों को संतोष दे सकता है, तो मेरा पानी पंजाब के खेतों में क्यों नहीं पहुंच सकता? नानक ने आगे कहा, हम पितरों के प्रति श्रद्धा रखें। पर जो जीवित पितर अपने आसपास हैं, उनके प्रति सेवाभाव रखना भी जरूरी है।