एक दिन संत तुकड़ोजी महाराज दोपहर को विश्राम कर रहे थे कि एक शिष्य रामचंद्र उनके पास गुस्से में भरा आया। शिकायत भरे शब्दों में उसने कहा, 'गुरुदेव, लोग बड़े अहमक हो गए हैं। देखिए न, सामने किसी मूर्ख ने कटिंग-सैलून खोला है और उसका नाम रखा है- 'गुरुदेव सैलून'। आप फौरन उसे बुलवाकर नाम बदलने को कहें, नहीं तो अभी उसकी दुकान को आग लगा दूंगा।' तुकड़ोजी ने सुना तो उन्हें हंसी आ गई।
बोले, 'अरे वाह, मुझे तो आज ही मालूम हुआ कि वह सैलून है। हनुमानजी ने तो लंका इसलिए जलाई थी कि पापी रावण ने सीताजी का अपहरण कर उन्हें लंका में छिपा रखा था। क्या इस सैलून वाले ने भी कुछ ऐसा ही कर रखा है? तू क्यों सैलून जलाने की सोच रहा है? वह वहां बाल काटने का काम करता है और अपने परिवार के पालन-पोषण का सत्कर्म करता है। इस तरह वह सैलून तो मंदिर के समान पवित्र है।
तब क्या तू इस मंदिर को जलाएगा?' रामचंद्र को चुप देख वे बोले, 'अरे हां, तुझे तो सैलून के नाम पर आपत्ति है! मगर नामकरण तो पिता द्वारा किया जाता है। तेरा नाम रामचंद्र भी तो तेरे पिता ने कुछ सोच कर ही रखा होगा, मगर इससे प्रभु रामचंद्रजी को क्रोध आया होगा कि तेरे पिता ने उनका ही नाम क्यों चुना?' भावुक शिष्य रामचंद्र के लिए इतना ही पर्याप्त था। वह बड़ा लज्जित हुआ।