पारसी धर्मगुरु रवि मेहर के तीन पुत्र थे। वे तीनों एक दिन महामारी की चपेट में आ गए और वे जीवित न रह सके। मेहर उस समय बाहर गए हुए थे। शाम को जब वे घर लौटे तो उन्हें बच्चे दिखाई नहीं दिए। उन्होंने सोचा, शायद सो गए होंगे। भोजन करते समय उन्होंने पत्नी से पूछा, 'क्या बात है, आज बच्चे जल्दी क्यों सो गए?' पत्नी ने उनकी इस बात का उत्तर दिए बिना उनसे कहा, 'स्वामी! कल हमने पड़ोसी से जो बर्तन लिए थे, उन्हें मांगने के लिए पड़ोसी आ गए थे।' मेहर ने कहा,'बर्तन उनके थे, इसीलिए वे लेने को आए थे। पराई वस्तु का मोह हम क्यों करें?'
पत्नी ने कहा भोजन के बाद संत को फिर अपने बच्चों की याद आ गई। तब पत्नी उन्हें भीतर के कमरे में लेकर गई। वहां उसने चारपाई के नीचे रखे तीनों बच्चों के शव दिखा दिए। यह देखते ही संत फूट-फूटकर रोने लगे। तब पत्नी उनसे बोली, 'स्वामी! आप अभी-अभी तो मुझसे कह रहे थे कि यदि कोई अपनी वस्तु वापस लेना चाहे, तो हमें वह वस्तु लौटा देनी चाहिए और उसके लिए दु:ख भी नहीं करना चाहिए, लेकिन अब आप स्वयं ही यह भूले जा रहे हैं। बच्चे भगवान के यहां से आए थे, सो उन्होंने ले लिए। फिर हम उनके लिए क्यों बेवजह शोक करें?' इन शब्दों से संत का चित्त कुछ हलका हो गया और वे भगवद्-भजन में लीन हो गए।