गांधी जी उन दिनों सेवाग्राम आश्रम में रह रहे थे। दूर-दूर से लोग उनसे मिलने आते और अपने मन की बात उनके सामने रखकर उनसे उसका समाधान ले जाते। एक बार गांधी जी का एक परिचित धनी व्यक्ति उनसे मिलने पहुंचा। उसने दुखी मन से कहा, 'महात्मा जी, आज समय बेईमानों का ही रह गया है। आप तो जानते ही हैं कि मैंने अमुक नगर में कितने प्रयत्नों के बाद लाखों रुपये खर्च कर धर्मशाला का निर्माण कराया था। अब कुछ गुटबाजों ने मुझे प्रबंध समिति से ही हटा दिया है। आप देखिए, इन दिनों ऐसे लोग समिति में आ गए हैं जिनका धन की दृष्टि से तो योगदान नगण्य ही है। मुझे तो समझ ही नहीं आ रहा है कि मैं करूं तो क्या करूं? इस संबंध में क्या न्यायालय में मामला दर्ज कराना उचित नहीं होगा?' उसकी बात सुनकर गांधी जी ने कहा, 'तुमने धर्मशाला धर्मार्थ बनवाई थी या उसे व्यक्तिगत संपत्ति बनाए रखने के लोभ में ऐसा किया था? देखो, असली धार्मिक कर्म तो वह होता है, जो बिना लोभ-लाभ की इच्छा के किया गया हो। लेकिन मुझे लगता है कि तुम अभी तक नाम और प्रसिद्धि का लालच नहीं त्याग पाए हो। इसलिए तुम धर्मशाला में प्रबंध समिति के पद से हटाए जाने से दुखी हो। तुम धर्मशाला की प्रबंध समिति में पद और नाम की प्रसिद्धि के मोह को त्याग दो। मनुष्य को जीवन में सदा निष्काम कर्म की ओर बढ़ना चाहिए।' गांधी जी की बात सुनकर उस व्यक्ति ने संकल्प लिया कि वह भविष्य में किसी भी पद अथवा नाम के लालच में नहीं पड़ेगा।