19 Mar 2024, 15:22:30 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-विराग गुप्ता
संवैधानिक मामलों के जानकार


सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के तहत पशुओं का जीने का अधिकार कैसे निर्धारित किया, यह देखने-समझने की बात है। सरकार और अदालत आम जनता के जीवन और रोजगार के संवैधानिक अधिकार को लागू नहीं कर पाए, जिस कारण देश में 30 करोड़ लोग जानवरों से बदतर जीवन जी रहे हैं। इसके बावजूद जल्लीकट्टू सहित कई अन्य मामलों में सुप्रीम कोर्ट ने संविधान के अनुच्छेद-21 की अजब व्याख्या करते हुए पशुओं के जीने के अधिकार को मूल अधिकार कैसे बना दिया? ऐसे में सवाल यह है कि पशुओं के प्रति क्रूरता पर रोक लगाने हेतु पशुवध रोक का कानून क्यों न बने। घरेलू पशु-पक्षियों यथा बकरा, मुर्गा, कुत्ता इत्यादि को मांसाहार के लिए मारने से अधिक क्रूर कार्य क्या हो सकता है? यदि हम प्राणियों के प्रति क्रूरता रोकने के लिए गंभीर हैं, तो फिर अदालतों को मनमाफिक व्याख्या करने की बजाय संसद पशु-वध रोकने का कानून क्यों नहीं बनाती?

सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के बावजूद अटॉर्नी जनरल द्वारा गैरकानूनी राय क्यों दी गई। सुप्रीम कोर्ट द्वारा वर्ष 2014 में दिए गए विस्तृत निर्णय के बावजूद अटॉर्नी जनरल द्वारा दी गई वर्तमान राय गैरकानूनी है, जिसमें उन्होंने कहा है कि तमिलनाडु सरकार जल्लीकट्टू मामले पर अपना कानून बनाने के लिए कानूनी तौर पर सक्षम है।

'पशु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960' में संशोधन बगैर अध्यादेश कैसे मंजूर होगा। संविधान की सूची-3, एंट्री-17 और 'पशु क्रूरता निवारण अधिनियम 1960' के प्रावधानों के मद्देनजर सुप्रीम कोर्ट ने तमिलनाडु के 2009 के कानून को अवैध घोषित किया था। केंद्र सरकार द्वारा 1960 के कानून में अभी तक कोई बदलाव नहीं किया गया, तो फिर तमिलनाडु के अध्यादेश को मंजूरी क्या गैरकानूनी नहीं है?

सुप्रीम कोर्ट ने सुनवाई को एक हफ्ते टालकर क्या अपनी लाचारी दिखाई। पोंगल के वक्त खेले जाने वाले इस खेल पर सुप्रीम कोर्ट ने वर्ष 2014 में बैन लगा दिया था और उसके बाद तमिलनाडु सरकार की समीक्षा को भी निरस्त कर दिया था। पिछले साल केंद्र सरकार द्वारा जारी अधिसूचना पर सुप्रीम कोर्ट ने स्टे लगा दिया था। सरकार की अर्जी पर सुप्रीम कोर्ट ने मामले की सुनवाई को एक हफ्ते टालकर अपने पुराने निर्णय का उल्लंघन किया है, जिसके अनुसार अदालती फैसले और कानून जन-दबावों से नहीं बदलना चाहिए। दलों और सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट के आदेशों की अवमानना के बाद आम जनता से न्याय के मंदिर में आस्था की उम्मीद कैसे की जा सकती है?

पंजाब-कर्नाटक की तरह सुप्रीम कोर्ट की अवज्ञा की राह पर तमिलनाडु भी दिखाई दे रहा है। पंजाब और कर्नाटक के चुनावी राज्यों में सतलुज यमुना नहर और कावेरी विवाद पर सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट के आदेश की खुल्लम-खुल्ला अवहेलना के बावजूद सर्वोच्च अदालत अवमानना कारवाई करने में विफल रही। तमिलनाडु में भी अब सरकार सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना में जुटी है और सभी दल जयललिता की विरासत पर कब्जे की राजनीति कर रहे हैं।

तमिलनाडु की तर्ज पर अन्य राज्यों में भी नए कानून की मांग उठेगी। तमिलनाडु में जल्लीकट्टू की तरह असम सहित कई राज्यों में पशु-पक्षियों के परंपरागत खेलों का प्रचलन है। केंद्र सरकार द्वारा तमिलनाडु के अध्यादेश को मंजूरी देने के बाद अन्य राज्यों में ऐसे खेलों पर सुप्रीम कोर्ट द्वारा लगाई गई बंदिश कैसे लागू होगी?

अध्यादेश पर मंजूरी के बाद संविधान में संशोधन करना पड़ेगा। सुप्रीम कोर्ट के नवीनतम निर्णय के अनुसार अध्यादेश द्वारा शासन चलाना गैरकानूनी है, जिसके बावजूद जल्लीकट्टू पर अध्यादेश की सर्वसम्मति बनाई गई। राष्ट्रपति द्वारा अध्यादेश को मंजूरी के बाद केंद्र द्वारा संविधान में संशोधन करके पशु-पक्षियों के खेल को राज्य सूची में लाना चाहिए, जिससे अन्य राज्यों में विवाद का फैसला वहां की सरकार कर सकें।

आवारा कुत्तों से दुखी केरल और छत्तीसगढ़ में हाथियों का आतंक भी चर्चा में है। वास्तव में छत्तीसगढ़ में आवारा हाथियों के आतंक से परेशान ग्रामीणों को सरकार सुरक्षा देने में विफल हो रही है। केरल में आवारा कुत्तों के काटने से सैकड़ों लोगों के मरने के बावजूद पशुप्रेमियों के दबाव में अदालतों द्वारा कुत्तों के तथाकथित मानवाधिकारों की व्याख्या हो रही है।

इसी तरह पशु-वध रोकने से फैली अन्ना प्रथा से किसान और खेती बदहाल हो रही है। गोवध पर हो-हल्ला होने के बाद यूपी के बुंदेलखंड जैसे क्षेत्रों में आवारा गायों के आतंक (अन्ना-प्रथा) से मजबूर किसानों द्वारा असमर्थ बूढ़ी गायों के साथ क्रूरता को कैसे नजरअंदाज किया जा सकता है? कथित पशुप्रेमियों द्वारा कानून की अजब व्याख्या पर जोर देने से ग्रामीण भारत में रोजगार और आर्थिक संकट पैदा हो रहे हैं।

राजस्थान में विश्नोई समाज की तरह ग्रामीण खेतिहर भारत में प्राणियों की रक्षा हमेशा स्थानीय किसानों ने की है, जिन्हें अब कानून की नजर में गुनहगार ठहराया जा रहा है। इस विवाद के बावजूद पशु-प्रेमी और कानून के रखवाले अगर सही सबक लेने में विफल रहे तो नेताओं की राजनीति तो सफल होगी ही।

  • facebook
  • twitter
  • googleplus
  • linkedin

More News »