-वीना नागपाल
कुछ समय पहले दिल्ली के लेफ्टीनेंट गर्वनर नजीब जंग ने अपनी प्रशासकीय जिम्मेदारियों से मुक्त होने के लिए त्यागपत्र दे दिया। उन्होंने कहा वह अपने परिवार को समय देने के लिए और पुन: अपने अध्ययन व अध्यापन कार्य में लौट जाने के लिए त्यागपत्र दे रहे हैं। पिछले दिनों न्यूजीलैंड के प्रधानमंत्री ने भी अचानक सबको चौकाते हुए अपने पद से त्यागपत्र दे दिया था। उन्होंने भी यही कहा था कि प्रधानमंत्री के रूप में कई महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां निभाने के कारण वह अपने परिवार को समय नहीं दे पा रहे हैं। वह अपने परिवार के साथ अधिक से अधिक समय बिताना चाहते हंै। जो वह प्रधानमंत्री होते हुए नहीं कर पा रहे थे।
वास्तव में परिवार की भूमिका और उसके प्रति लगाव व अपनत्व जीवन की केंद्रीय धुरी होता है। मानव सभ्यता के प्रथम चरण में ही परिवार पहले अस्तित्व में आया और उसके बाद अन्य संस्थाएं बनीं। परिवार का महत्व इसलिए भी बहुत अधिक हो जाता है कि वह मानव को बहुत भावनात्मक व संवेगात्मक सुरक्षा देता है। यद्यपि आज के समय में परिवार नामक संस्था को बहुत चोट पहुंचाने और छिन्न-भिन्न करने की पुरजोर कोशिश हो रही है पर कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी...(महान शायर इकबाल) की कही बात की तरह ‘परिवार’ सभी थपेड़ों क ो सहता हुआ कर टिका हुआ है। महान ग्रीक (यूनानी) दार्शनिक प्लेटों शासकों को परिवार की मोह-माया से मुक्त रखने के लिए ‘परिवार’ नामक संस्था को पूरी तरह खत्म करने के लिए और '' सामुदायिक लिविंग'' की बात कही थी पर प्लेटो की दार्शनिकता के कायल होने के बाद भी उनकी इस समुदायिक लिविंग की बात को पूरी तरह से नकार दिया गया और परिवार नाम की संस्था चली आ रही है।
हम सब यह जानते हैं कि प्रशासकीय व राजनीतिक नेतृत्व को संभालना आसान नहीं होता। इनकी अति बोझ भरी जिम्मेदारियां होती हैं जिन्हें निभाना बहुत कठिन भी होता है और वह बोझिल भी लगता है। इन्हें निभाने के दौरान परिवार दोयम हो जाता है व उसमें दूरी भी हो जाती है, जिसे एक तरह से कर्तव्य पूरा करते समय एक त्यागी का मुद्दा अपनाना पड़ता है। परिवार में जब-तब उठने वाली मांगों व कई समस्याओं को सुलझाने का समय नहीं मिलता। यह द्वन्दात्मक स्थिति बनी रहती है कि अपने पद के साथ जुड़ी जिम्मेदारियों को पूरा करें या परिवार की मांगों और उसकी अपेक्षाओं को पूरा करें। यह स्थिति केवल परिवार के उस मुखिया की ही नहीं होती बल्कि परिवार के सदस्य भी इस स्थिति से निरंतर गुजरते रहते हैं और उसे सहन भी करते हैं। विशेषकर पत्नी तो कई बार त्रस्त भी हो जाती है।
परिवार को केंद्र में रखकर हालांकि सब कुछ सोचा जाना चाहिए क्योंकि परिवार तो मानव स्वभाव की मूलभूत जरूरत है शेष कार्यों की केवल पूर्ति की जाती है उन्हें करना मानव प्रकृ ति का अभिन्न अंग नहीं है। वह सब तो परिवार के बाद ही आता है। परंतु एक बात और भी महत्वपूर्ण है कि परिवार के अस्तित्व में आने के साथ ही मनुष्य की सामाजिकता ने भी जन्म लिया। यदि परिवार चलाना जरूरी है तो इस सामाजिकता की जिम्मेदारियां और कर्तव्य पूरा करना भी उतना ही आवश्यक है। इस सामाजिकता को बनाए रखने के लिए कुछ नियम व कायदे समाज ने ही बनाए हैं, जिनका पालन करवाने की व्यवस्था भी होना चाहिए। इसलिए समाज में बौद्धिक कुशलता वाले तथा नेतृत्व करने वाले आगे आ जाते हैं, जो इनका पालन करवाते हैं और शेष उन्हें फॉलो करते हैं। नेतृत्व करने वाले महिला हों या पुरुष अपनी उस श्रेष्ठता को नकार नहीं सकते जिनके कारण समाज में व्यवस्था बनती है। परिवार का अपना महत्व है पर, समाजिक व्यवस्था बनाए रखना भी जरूरी है। जब तक पद पर बने रहने की अवधि है, उसे समर्पण से पूरा किया जाए उसके बाद ही वनवास की सोचें।
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