-आचार्य महाप्रज्ञ
आत्मा को देखने का पहला द्वार है श्वास। भीतर की यात्रा का पहला द्वार है श्वास। हम बाहर की ओर दौड़ता है जब भीतर की यात्रा शुरू करनी होती है, तब प्रथम प्रवेशद्वार श्वास से गुजरना होता है जब श्वास के साथ मन भीतर जाने लगता है, तब अंतर्यात्रा शुरू होती है। श्वास आत्मा है, शरीर आत्मा है, मन आत्मा है. यदि शरीर आत्मा न हो, तो जीवित शरीर और मृत शरीर में कोई अंतर नहीं रहेगा।
यदि मन आत्मा न हो, तो मन-सहित और मन-रहित में कोई अंतर नहीं रहेगा। जहां तक पहुंचना चाहते हैं, वहां तक इनके द्वारा ही पहुंचा जा सकता है। श्वास का स्पर्श किये बिना, श्वास को देखे बिना शरीर को ठीक तरह से नहीं समझ सकते, नहीं देख सकते। शरीर को देखे बिना मन को नहीं देख सकते। मन को देखे बिना आभामंडल को नहीं देख सकते।
आभामंडल को देखे बिना प्राण को नहीं देख सकते और प्राण को देखे बिना उस चैतन्य तक नहीं पहुंच सकते, जहां हमें पहुंचना है। यह पूरा का पूरा यात्रापथ है यदि आत्मा तक पहुंचना है, सूक्ष्म तत्व तक पहुंचना है, अस्तित्व तक पहुंचना है, तो इसी यात्रापथ पर चलना होगा।
आप चाहें कि सीधे आत्मा को देख लें- यह भ्रांति होगी। मैं कहूं कि आत्मा को देखें यह भी भ्रांति होगी. आप यह मान लें कि उस परम सत्ता को, परम अस्तित्व को, चैतन्य को, जो अमूर्त है, सूक्ष्म है, हमारे चर्मचक्षुओं का विषय नहीं है, उसे हम देख लें- यह कहना और ऐसा समझना बहुत बड़ी भ्रांति होगी।
आत्मा से आत्मा को देखें, इसका पहला अर्थ है- मन के द्वारा श्वास के स्पंदनों को देखें. इसका दूसरा अर्थ है- मन के द्वारा शरीर के प्रकंपनों को, संवेदनों को देखें. इसका तीसरा अर्थ है- विचारों को देखें। इस स्थिति तक पहुंच जाने पर आभामंडल स्पष्ट हो जाता है, दृष्ट हो जाता है. हमारे भीतर, हमारे चारों ओर सर्वत्र स्पंदनों का संसार है।
जिस व्यक्ति ने अपने आभामंडल का अनुभव किया है, वह जानता है कि हमारे भीतर और चारों ओर स्पंदनों का वह अनंत सागर है, जिसकी हम कल्पना भी नहीं कर सकते। हमारे भीतर और हमारे बाहर सागर तरंगित हो रहा है। आभामंडल तक पहुंचने के बाद हम उस प्राणशक्ति को देख सकेंगे, जिससे ये स्पंदित होते हैं।