26 Apr 2024, 05:00:36 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-रमण रावल
वरिष्ठ पत्रकार
 
 
अरुणा शानबाग जी रही थी या मर चुकी थी इस बारे में खुद अरुणा नहीं जानती थी। कोमा के शिकंजे में कैद व्यक्ति का क्या जीना, क्या मरना? यह सारे अहसास तो मनुष्य के रूप में जन्मे एक शैतान ने मुंबई के केईएम अस्पताल में 27 नवंबर 1973 को तभी खत्म कर दिए थे, जब उसने 24 वर्षीय अरुणा से न केवल जबरदस्ती की, बल्कि ऐसा करने के दौरान उस वहशी ने अरुणा के गले को कुत्ते को बांधने वाली चेन से कस भी दिया था, ताकि वह शोर न कर सके। इस धरती पर मानवता का गला रेंतने वाले मामलों में से एक इस वाकये ने अरुणा को जिस्मानी और रुहानी तौर पर 42 साल तक मात्र एक पुतला बना दिया था- जिसमें प्राण तो थे, लेकिन जुबान खामोश थी, दिमाग बेसुध और शरीर हाड़-मांस का कवच बनकर रहा। 18 मई को यह भ्रम भी टूट गया। उस अस्पताल का वह शैतान वार्ड बॉय महज सात साल की सजा के बाद आजाद जिंदगी जी रहा है।
 
 
इन 42 सालों में अरुणा यह तो नहीं जानती थी कि वह जिये या बिस्तर से उठकर उस शैतान का अंग-अंग काट डाले, लेकिन उसकी सहेली पिंकी वीरानी चाहती थी कि इस त्रासद और नारकीय जीवन से तो मौत भली । सो उसने सहेली अरुणा के लिए मौत चाही थी, लेकिन सुप्रीम कोर्ट ने करीब पांच साल पहले कानून के अभाव में यह इजाजत नहीं दी थी। कोई अपने आत्मीय के लिए मौत चाहे, इससे अधिक पीड़ादायक भी कुछ नहीं हो सकता। अपनी तरह के सर्वथा अनोखे मामले में सुप्रीम कोर्ट ने पिंकी वीरानी की याचिका यह कहकर खारिज कर दी थी कि यह इंसानियत से जुड़ा मामला है, इसलिए इच्छा मृत्यु की इजाजत नहीं दी जा सकती। संसद में कानून बनाने पर ही ऐसा किया जा सकता है पता नहीं, अदालत तब 37 साल से बिस्तर पर पड़ी, कुछ भी बोल-सुन-खाने-पीने से वंचित उस बेबस महिला को किस इंसाफ के लिए जिंदा रखना चाहती थी? सुप्रीम कोर्ट कानून और संविधान से परे भी प्राकृतिक न्याय के आधार पर अनेक फैसले लेते रहा है, फिर इस मामले में क्यों उसके हाथ बंधे रहे यह तो वही जाने, लेकिन इसका किसी के पास क्या जवाब है कि एक निर्दोष और असहाय महिला का इस तरह जीना कितना न्याय संगत, प्राकृतिक, मानवीय और तर्क संगत था?
 
 
इस तरह की घटनाएं बेहद उद्वेलित करती हैं। ईश्वर, न्याय, मानवता, परोपकार जैसे तमाम अल्फाज बेमानी, बेअसरकारी लगते हैं। अरुणा तो अब नहीं रही, लेकिन उस जालिम, जाहिल, शैतान को धरती के तले में दफन हो जाने को विवश कर देने वाले को मिली सजा और बची
जिंदगी के बारे में कोई बात क्यों नहीं की जा रही? यह शैतान जिंदा न भी हुआ तो शर्म से तो कतई न मरा होगा ? जो व्यक्ति ऐसी दरिंदगी कर सकता है, जो सात साल की सजा काट कर आने के बाद उस शैतान के किए की सजा भुगत रही अरुणा की सेवा-सुश्रुषा कर अपने पाप को
कुछ कम करने, पश्चाताप के तौर पर उसकी देखभाल करने की बजाय उसके पलंग की रैलिंग हटा देता है, ताकि गिरकर वह मर जाए। उस नरपिशाच को समाज ने, अदालत ने, व्यवस्था ने, पीड़ित के परिजन ने, उस केईएम अस्पताल के कर्मचारियों ने, जहां यह हैवानियत हुई, कोई सजा क्यों नहीं दी? क्या बेबस के साथ इंसाफ न कर पाने वाला समाज, कानून, वकील, दलील, अपील एक दरिंदे के आगे हमेशा इस तरह असहाय और पंगु साबित होंगे?
 
 
इस तरह के मामलों में कानून केवल बंधी-बंधाई लीक पर ही क्यों चलता है? ऐसे मामलों में केवल बलात्कार या हिंसा करने की धाराओं में ही प्रकरण क्यों चलाया जाता है? किसी भी न्यायाधीश और वकील के जीवन में ऐसा संभवत: एक ही प्रकरण आता होगा, तब उसका निराकरण किसी दायरे के भीतर, किसी सुनिश्चित परिभाषा के तहत ही क्यों किया जाता है ? बेशक सबके अपने तर्क, विवशताएं, सीमा और सोच होता है । फिर भी अरुणा की तरह के मामलों में कुछ बातें तो समाज अपेक्षित करता है। मसलन, ऐसे मामलों का निराकरण यथाशीघ्र हो। सजा ऐसी हो कि अपराधी की रूह कांप उठे और उसकी सात पुश्तें याद रखे। अपराध जगत वैसा करने की सोचकर ही सिहर उठे।
 
 
 
ताज्जुब है कि हमने मामलों को बरसोबरस तक लटकाकर रखने की प्रवृत्ति तो अंग्रेजों से ले ली, लेकिन गुनहगार मानने वाले भारतीयों को प्रताड़ित, पीड़ित, भ्रमित और दंडित करने वाली उनकी त्वरित कार्रवाई की जो प्रवृत्ति कानून की आड़ में थी, उसे नजरअंदाज कर दिया। तमाम नाइत्तिफाकी रखने के बावजूद इस तरह के मामलों में इस्लामी देशों के कानून ज्यादा कारगर साबित हुए हैं। गलत सिर्फ इतना है कि वे सबको एक ही लाठी से हांकते हैं। यूं देखा जाए तो पश्चिमी मुल्क भी न्याय व्यवस्था में काफी आगे तो हैं, जहां दस रुपए की चोरी करने पर दो बहनों को 20 साल की सजा भुगतनी पड़ती है और नशा कर कार चलाने पर रईसजादी पेरिस हिल्टन को भी जेल जाना पड़ता है।
 
 
न्याय सुगम और त्वरित करने के लिए हमने विशेष अदालतें बनाईं, फास्ट ट्रेक अदालतें बनाईं, फिर भी विकास की रμतार के मद्देनजर न्यायिक क्षेत्र में काफी हद तक 18वीं शताब्दी में ही हैं। गौर करें तो रियासतकालीन जमाना भी काफी हद तक ठीक था, जब राजा या दरबार एक ही बैठक में फैसला ले लिया करता था। हर तरह के अपराध तब भी होते थे, किन्तु वे नगण्य थे। मूल मुद्दा तो यह है कि जिसने अरुणा को इस हाल में पहुंचाया उसके या उसके जैसों का क्या किया जाए? हर घटना एक  सबक होती है, बशर्ते हम वैसा मानें तो। कृपया ऐसे मामलों में अदालतें यदि वक्त न लेकर तत्काल फैसले ले सके तो मानवता के लिए, समाज के लिए, न्याय व्यवस्था में भरोसा बनाए रखने के लिए काफी मददगार होगा।
 
 
जब अदालत और विधायिका के बीच इस बात के लिए द्वंद्व हो सकता है कि कौन सुप्रीम है और न्यायपालिका कहां तक विधायिका के क्षेत्र में दखल दे सकती है तो कम से कम अरुणा जैसे मामलों में भी उसे इतनी  हिम्मत तो दिखानी ही चाहिए थी कि दायरों से निकलकर कोई कदम उठाए जाते। अरुणा जिस वक्त प्रताड़ित की गई, तब निर्भया कानून नहीं था, लेकिन सामाजिक चेतना और न्यायाप्रियता कहीं अधिक थी। इसके बावजूद आरोपी के सात साल में छूटकर आने की बात गले नहीं उतरती। इस अति विशेष मामले में अदालती फैसला भी ऐतिहासिक होना था। दिल्ली के निर्भया कांड के पहले ही यदि अरुणा कांड से सबक लेकर कोई कठोर फैसला ले लिया गया होता तो संभव है कि दिल्ली जैसे कांड नहीं होते या कम होते। क्रूरतापूर्ण कृत्य करने वालों के साथ मानवीय उपायों से निपटना कहानी-किस्सों में अच्छे लगता है। हकीकत में ऐसे मामलों में रूह तक कंपा देने वाले फैसले जब तक नहीं होंगे, महिलाओं के प्रति अपराधों में शायद ही कमी आ पाए।
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