24 Apr 2024, 23:07:00 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-मृत्युंजय दीक्षित
लेखक समसामयिक विषयों पर लिखते हैं


विगत 2 जनवरी को देश के सर्वोच्च न्यायालय ने धर्म, जाति और मत, संप्रदाय के नाम पर चुनाव लड़ने को असंवैधानिक करार दिया था। मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली सात सदस्यीय खंडपीठ ने अपने ऐतिहासिक फैसले में कहा है कि चुनाव एक धर्मनिरपेक्ष गतिविधि है और लोग किसकी पूजा करते हैं वह उनकी व्यक्तिगत इच्छा का मामला है। इसलिए राज्य को इस गतिविधि में हस्तक्षेप करने की अनुमति नहीं हैं। अदालत ने अपने निर्णय में स्पष्ट कर दिया है कि इन आधारों पर वोट मांगना चुनाव सुधारों के तहत भ्रष्ट व्यवहार होगा जिसकी अनुमति नहीं है। इस फैसले के बाद जैसा कि आशा थी कि राजनैकि दल समझदारी का परिचय देंगे, लेकिन अभी चुनाव प्रक्रिया पटरी पर भी नहीं उतरी है कि सभी दलों ने पूरी ताकत के साथ न्यायपालिका की अवमानना करना प्रारंभ कर दिया है। इस फैसले के बाद एक सबसे बड़ी समस्या मुकदमेबाजी की बाढ़ आने की थी लगभग वह भी शुरू हो चुका है।

सर्वाेच्च न्यायालय के फैसले की सर्वाधिक अवमानना उप्र सहित आगामी पांच प्रांतों में होने जा रहे चुनावों में देखने को अवश्य मिलेगी और वह प्रारंभ भी हो चुकी है। उप्र में तो लगभग सभी दल पूरी ताकत के साथ धर्म व जाति की गजब की राजनीति करने जा रहे हैं। उप्र में तो भाजपा सांसद साक्षी महाराज इसके शिकार भी बन चुके हैं। मेरठ में चार बीवियों  व 40 बच्चों को लेकर दिए गए बयान के खिलाफ उन पर सभी दलों ने कार्रवाई करने की मांग की है तथा वह शुरू भी हो चुकी है। सभी विरोधी दल दावा र रहे हैं कि भाजपा सांसद का बयान सर्वोच्च न्यायालय के निदेर्शों के खिलाफ है। उनके खिलाफ कार्रवाई होनी चाहिए, लेकिन सबसे मजेदार बात यह हो रही है कि उप्र में धर्म व जाति पर सबसे खतरनाक राजनीति तो भाजपा विरोधी कर रहे हैं। सबसे अधिक मुकदमें भी भाजपा विरोधी दलों के खिलाफ ही होने जा रहे हैं। वर्तमान समय में सबसे अधिक उग्र मुस्लिम परस्त राजनीति व जातिगत राजीति को हवा देने का काम बसपानेत्री मायावती कर रही हैं। बसपा नेत्री मायावती ने अपने उम्मीदवारों का परिचय धर्म व जाति के नाम पर करवाया है।

खबर है कि बसपा नेत्री मायावती के खिलाफ चुनाव आयोग में याचिका भी दायर हो गई है और उनके खिलाफ एफआईआर व बसपा की मान्यता रद्द करने की भी मांग की गई है। अदालत के फैसले की गहनता को यदि नजदीकी दृष्टि से देखा जाए तो बसपा प्रमुख मायावती इसका सीधा शिकार हो सकती हैं। यहां पर चुनाव आयोग व चुनाव आचार संहिता का पालन करवाने वाले अधिकारियों की निष्पक्षता की भी व्यापक आधार पर अग्निपरीक्षा होने जा रही है। बसपा तो मुसिलम बहुल इलाकों में धर्म के आधार पर जनसभाएं भी कर ही हैं तथा मुस्लिम समाज में दंगों के भय का वातावरण भी पैदाकर ही है तथा अपनी हर प्रेसवार्ता में किसी न किसी प्रकार से धर्म के आधार पर मुस्लिम समाज व फिर जाति के आधार पर ही समाज को संबोधित करते हुए वोट देने की मांग कर रही हैं। सपा नेता आजम खां कह रहे हैं कि जबसे समाजवादी परिवार में दंगल का आरंभ हुआ है तबसे मुस्लिम समाज असमंजस व दुविधा के भंवर में डूब गया है। वह सोच नहीं पा रहा है किधर जाएं, सपा में तो सपा मुखिया मुलायम सिंह मुसलमानों के सबसे बड़े हितैषी हैं ही, वहीं सपा के नए संभावित सुल्तान अखिलेश यादव ने तो सपा सरकार के कार्यकाल में ही मुस्लिम तुष्टिकरण की गजब की आंधी चला दी थी। सपा में चल रहे दंगल के बीच सबसे दिलचस्प मुकाबला यह देखना बाकी है कि  यदि दोनों खेमें अलग- अलग चुनाव मैदान में जाते हैं तो दोनों ही ओर से कितने मुस्लिम बाहुबली उम्मीदवार चुनाव मैदान में अपना खंभ गाड़ते हैें। दोनों ही पक्षों को मुस्लिम मतों की जोरदार आस रहने वाली है और धर्म व जाति  की राजनीति भी गजब की करने वाले हैें।

वहीं उप्र के चुनावों में इस बार यदि कांग्रेस का किसी दल से समझौता नहीं हुआ तो वह भी मुस्लिम परस्त और अतिपिछड़ों को उनका हक दिलाने के बहाने काफी जोरदार ढंग से धर्म व जाति का खेल खेलने वाली है। माना जा रहा है कि यदि कांग्रेस किसी भी दल व गुट के साथ कोई समझौता करेगी तो वह भी धर्म व जाति के आधार पर नफा - नुकसान देखकर ही करेगी। कांग्रेस की ओर से जो भी चुनावी बयानबाजी शुरू हुई है वह भी धर्म व जाति के धंधे की राजनीति से ही शुरू हुई है।

उप्र की राजनीति में कुछ नए दलों का भी प्रादुर्भाव हो रहा है तथा अन्य छोटे दल भी केवल धर्म व जाति के नाम चुनावी गठबंधन कर रहे हैं। चुनाव आयोग की मिशनरी के प्रयासों को धता बताते हुए ये सभी छोटे दल कालेधन को भी खपाने का काम करने वाले हैें। हैदराबाद के सांसद असदउद्दीन ओवैसी की पार्टी आॅल इंडिया मजलिस- ए- इत्तेहादुल- मुसलेमीन अकेले ही चुनावी मैदान में कूदने जा रही है। ओवैसी का पूरा एजेंडा ही धर्म पर आधारित है। वहीं दूसरी ओर डॉ. अय्यूब खान के नेतृत्व वाली पीस पार्टी ने अपने सहयोगी दल निर्बल इंडियन शोषित हमारा आमदल (निषाद पार्टी) के साथ मिलकर लड़ेंगे। इस बार के विधानसभा चुनावों में सबसे खास बात यह भी सामने आ रही है कि सभी दल केवल भाजपा को ही हर हाल में रोकना चाह रहे हैं, लेकिन अभी तक किसी भी दल व गुट का ऐसा बड़ा गठबंधन सामने नहीं आ पा रहा है जो कि भाजपा को रोकने में सफल हो सके। सभी दल केवल और केवल धर्म के आधार पर वह भी केवल मुस्लिम परस्त राजनीति ही कर रहे हैं।

एक ओर जहां भारतीय जनता पार्टी पर आमतौर पर हिंदुवादी राजनीति करने का आरोप लगाया जाता है और सभी दल उस पर मुस्लिम समाज में भय उत्पन्न करने का आरोप लगाते हैं। आमतौर पर भाजपा विरोधी भाजपा को दंगा कराने वाली पार्टी कहते हैं, लेकिन इस बार भाजपा ने पीएम मोदी व अमित शाह की अगुवाई में अपना एजेंडा कुछ सीमा तक बदल दिया है। वह गरीब और गरीबी हटाओ पर  अपना चुनाव अभियान केंद्रित करने जा रही हैं । हर बार की तरह सबका साथ सबका विकास उसका नारा रहना वाला है, लेकिन भाजपा ने भी नोटबंदी से परेशान व विपक्षी दलों के हमलों को कुंद करने के लिए मुस्लिम समाज से लोकलुभावन वादे करने प्रारंभ कर दिए हैं।

कालेधन के खिलाफ स्ट्राइक होने के बाद अब राजनीति को सुधारने के लिए यह कार्रवाई बेहद जरूरी हो गई है ताकि धर्म, जाति, मत व संप्रदाय के नाम पर वोट मांगना बंद हो सके। भारतीय राजनीति में फतवा राजनीति बंद हो सके। इस समय उप्र में एक ओर चीज चल रही है कि कभी वैश्य महासभा का आयोजन होता है तो कभी क्षत्रिय महासभा का, इनकी गतिविधियों पर भी नजर रखने की आवश्यकता है, क्योंकि इस प्रकार के संगठन जातिगत आधार पर चुनावी समीकरणों को बनाने व बिगाड़ने का काम करते हैं। ऐसी जगहों पर राजनैतिक दलों के नेता पर्याप्त भाग लेते हैं। आगामी विधानसभा चुनाव चुनाव आयोग व सर्वोच्च न्यायालय के लिए भी कड़ी अग्निपरीक्षा साबित होने जा रहे हैं।

  • facebook
  • twitter
  • googleplus
  • linkedin

More News »