-पुण्य प्रसून बाजपेयी
वरिष्ठ पत्रकार
दुनिया के तमाम अंतरराष्ट्रीय बॉर्डर से कहीं ज्यादा रोशनी वाली 2900 किलोमीटर लंबी भारत-पाकिस्तान सीमा पर डेढ़ लाख फ्लड लाइट इसलिए चमकते हैं, क्योंकि ये सीमा दुनिया की सबसे खतरनाक सीमा में तब्दील हो चुकी है। दुनिया की नजर भारत-पाकिस्तान को लेकर इसीलिए कहीं तेज है कि अगर युद्ध छिड़ा तो युद्ध परमाणु हथियारों के उपयोग तक न चला जाए। अगर भारत अंतरराष्ट्रीय मंच का सहारा लेता है तो पाकिस्तान के लिए कश्मीर पर बहस छेड़ना आसान हो जाएगा। जिसकी शुरुआत पाकिस्तानी राष्टÑपति नवाज शरीफ ने संयुक्त राष्ट्र जनरल असेंबली की बैठक से पहले न्यूयार्क पहुंचकर कर शुरू भी कर दी है।
अगर भारत यद्ध की दिशा में बढ़ता है तो संयुक्त राष्ट्र ही नहीं बल्कि दुनिया के तमाम मंचों पर इसी बात की ज्यादा सुगबुगाहट शुरू हो जाएगी कि युद्ध अगर परमाणु युद्ध में तब्दील हो गया तो क्या होगा। यानी भारत के साथ खड़ा अमेरिका भी युद्ध नहीं चाहेगा। तो फिर भारत के सामने अब रास्ता क्या है? क्योंकि पहली बार भारत के सामने अपने तीन सवाल हैं। पहला आंतरिक सुरक्षा डांवाडोल है। दूसरा, युद्ध के लिए 10 दिन से ज्यादा गोला-बारूद भारत के पास नहीं है। तीसरा पाकिस्तान के पीछे चीन खड़ा है, तो क्या भारत के पीछे अमेरिका खड़ा होगा। जाहिर है इन हालात पर साउथ ब्लाक से लेकर 7 आरसीआर तक बैठकों में जिक्र जरूर हो रहा है, तो क्या वाकई भारत के लिए यह सबसे मुश्किल इम्तिहान का वक्त है। क्योंकि आतंक की जमीन पाकिस्तान की है। हमला आतंकी है। जो भारत की सीमा के भीतर घुसकर छापामार तरीके से किया गया है। ऐसे में युद्ध के तीन तरीके हैं। गुप्त आॅपरेशन, पारंपरिक युद्ध और परमाणु युद्ध। यानी पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई के यही तीन आधार हैं, जो युद्ध की दिशा में भी भारत को ले जाता है। युद्ध पर भारत का रुख आत्मरक्षा वाला है, लेकिन हमेशा डिटेरेन्स अपनाएंगे तो फिर सेना की जरूरत ही क्या है? इस पर भी सवालिया निशान लग जाएगा। तो क्या डिप्लोमेसी और अंतरराष्ट्रीय मंच के समानांतर पहला विकल्प गुप्त आॅपरेशन का है। गुप्त आॅपरेशन का मतलब है बिना पारंपरिक यद्ध के ट्रेंड कमांडोज के जरिए पीओके में आंतकी कैंप को ध्वस्त करना, फिर पाकिस्तान में रह रहे कश्मीरी नुमाइंदों को निपटाना। तीसरे स्तर पर जो भारत विरोधी पाकिस्तान में आश्रय लिए हुए हैं उनके खिलाफ पाकिस्तान में ही गुप्त तरीके से आॅपरेशन को अंजाम देना। यानी ये कार्रवाई हिजबुल चीफ सैयद सलाउद्दीन से लेकर दाऊद तक के खिलाफ हो सकती है और पीओके से लेकर पेशावर तथा मुरीदके से लेकर कराची तक आंतकी कैंप ध्वस्त किए जा सकते हैं। पारंपरिक यद्ध और परमाणु यद्ध का मतलब है समूची दुनिया को इसमें जोड़ लेना। भारत की हालत अमेरिका या इजरायल वाली नहीं है जो अपने खिलाफ कार्रवाई को अंजाम देने के लिए हवाई स्ट्राइक करने से नहीं कतराते। भारत की मुश्किल ये है कि अगर वह सीमा पर ग्राउंड सेना को जमा करता है और एयर स्ट्राइक की इजाजत दे देता है तो काउंटर में पाकिस्तान के साथ हर तरह के युद्ध के लिए समूची रणनीति पहले से तैयार रखनी होगी। सवाल सिर्फ ये नहीं है कि युद्ध के हालात परमाणु युद्ध तक न चले जाएं, मुश्किल ये है कि पाकिस्तान को कश्मीर का सवाल ही एकजुट किए हुए है।
कश्मीर के भीतर पाकिस्तानी आंतक को पनाह देने से लेकर हर जरूरत मुहैया कराने में कहीं न कहीं कश्मीरी है। फिर सरकार की ही रिपोर्ट बताती है कि बीते तीन महीनों में हिजबुल में शामिल होने वाले नए कश्मीरियों की संख्या तेजी से बढ़ी है। यानी कश्मीर में सेना से इतर राजनीतिक-सामाजिक चेहरों को तलाशना होगा जो दिल्ली के साथ खड़ा हो न कि पाकिस्तानी आतंक के साथ, लेकिन इस दौर में कश्मीर में हिंसा को लेकर या पाकिस्तान की कश्मीर में दखल के बावजूद दिल्ली की खामोशी में आम लोगों का गुस्सा जायज है कि पाकिस्तान पर हमला क्यों नहीं कर सकते? क्योंकि पाकिस्तान से आए आतंकवादियों ने कोई पहली बार जवानों पर हमला नहीं किया। देश चाहता यही है कि भारत उठे और पाकिस्तान को सबक सिखा दे, लेकिन बड़ा सवाल यही है कि क्या भारत पाकिस्तान को युद्ध में फौरन पटखनी दे सकता है?
ये सवाल इसलिए क्योंकि बीते साल सीएजी की रिपोर्ट में साफ-साफ कहा गया कि भारतीय सेना के पास सिर्फ 15-20 दिन तक युद्ध लड़ने का गोला-बारूद है। स्वदेशी लड़ाकू जहाज तेजस भी युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार नहीं है। कुछ खास गोला-बारूद का रिजर्व तो महज 10 दिन के लिए ही है, तो याद कीजिए कि कारगिल युद्ध 67 दिन तक चला था, लेकिन-उस वक्त दोनों सेनाएं एक खास इलाके में लड़ रही थीं। अगर पूरी तरह से युद्ध हुआ तो भारत के पास पर्याप्त गोला-बारूद नहीं है, जबकि आदर्श हालात में वॉर वेस्टेज रिजर्व्स कम से कम 40 दिन का होना चाहिए। ऐसा नहीं है कि सरकार इस बात को नहीं जानती, क्योंकि मार्च 2012 में जनरल वीके सिंह ने सरकार को खत लिखकर साफ-साफ कहा था कि सेना युद्ध के लिए तैयार नहीं है और तब बीजेपी ने मनमोहन सरकार पर सवाल उठाया था कि सेना इनकी प्राथमिकता में है ही नहीं।
इसी सत्र में स्टैंडिंग कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि एंटी मैटेरियल गन, मल्टीपल ग्रैनेड लॉन्चर और 120 एमएम आर्टिलरी गोले तक की सेना में खासी कमी है और गोला-बारूद क्यों नहीं है। इसकी कई वजह हैं। इनमें सेना को पर्याप्त फंड न मिलने के राजनीतिक कारण से लेकर आयात की समस्या, आयुध फैक्टरियों में पर्याप्त प्रोडक्शन न होना और नौकरशाही की समस्या तक कई वजह हैं। आलम ये कि 2008 से 2013 के लालफीताशाही के वजह से तय आॅर्डर का सिर्फ 20 फीसदी ही गोला-बारूद आयात हुआ। मुद्दा सिर्फ इतना नहीं है कि लंबे युद्ध के लिए भारत के पास पर्याप्त गोला-बारूद नहीं है। दरअसल, पाकिस्तान ने आतंक को पोसने की अपनी रणनीति में भारत को ऐसा उलझाया है कि भारतीय सेना युद्ध पर कम और दूसरे मामलों में ज्यादा उलझ गई। मसलन, कारगिल युद्ध के बाद सेना के 12 हजार से ज्यादा जवान कारगिल में अटक गए । 26/11 यानी मुंबई हमले ने भारतीय नौसेना को समुद्री तटों की रखवाली में ज्यादा उलझा दिया। महंगे समुद्री पोत भी इसी काम में लगाए गए। एलओसी पर फैंसिंग ने सेना को डिफेंसिव मोड में रखा यानी भारतीय सेना की हदें तो तय हो गई, अलबत्ता आतंकी और उनके हैंडलर्स आसानी से फैंसिंग को धता बताकर घुसपैठ करते रहे। घुसपैठ विरोधी आॅपरेशन्स को अंजाम देने का जो काम पैरामिलिट्री फोर्स के पास होना चाहिए, भारतीय सेना को वो काम सौंप दिया गया। यानी युद्ध की बात से पहले युद्ध की पूरी तैयारी जरूरी है।
सच ये है कि साइबर-इंटेलीजेंस का हाल खस्ता है। आधुनिक हथियार और आधुनिक उपकरणों की खासी कमी है। इसीलिए सवाल सिर्फ उरी में हमले का नहीं, बल्कि उससे पहले पठानकोट, उससे पहले मणिपुर, उससे पहले मुंबई और उससे पहले कालूचक का है। इन सबके बीच करीब दर्जनभर आंतकी हमले ऐसे हुए जिसमें पहले से कोई अलर्ट नहीं था। क्या देश की आंतरिक सुरक्षा भी फेल है और अब वक्त आ गया है कि आंतरिक सुरक्षा का काम भी सेना को दे दिया जाए, क्योंकि इस बार भी हमले के शोरगुल में एलओसी से लगती उरी की सैन्य छावनी पर हमले के दौरान सुरक्षा चूक की बात अनदेखी रह गई, जिसकी वजह से हमला आसान हुआ।