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स्वराज के महानायक और देशभक्ति के प्रेरणापुरुष थे तिलक

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Jul 23 2016 12:37PM | Updated Date: Jul 23 2016 12:37PM
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-मृत्युंजय दीक्षित

भारत की गुलामी के दौरान अपना सर्वस्व न्यौछावर करने वाले लोकमान्य तिलक ने देश को स्वतंत्र कराने में अपना सारा जीवन व्यतीत कर दिया। वे जनसेवा में त्रिकालदर्शी, सर्वव्यापी परमात्मा की झलक देखते थे। ‘स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है मैं इसे लेकर रहूंगा’ के उद्घोषक लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक का स्थान स्वराज के पथगामियों में अग्रणीय हैं। उनका महामंत्र देश में ही नहीं अपितु विदेशों में भी तीव्रता के साथ गूंजा और एक अमर संदेश बन गया। यह एक अदभुत संयोग है कि तिलक 1856 के विद्रोह के वर्ष में तब  उत्पन्न हुए जब देश का सामान्य वातावरण अंग्रेजी राज्य के विरुद्ध विद्रोह की भावना से पूर्ण था।        

महानायक तिलक का जन्म 23 जुलाई 1856 को शिवाजी की कर्मभूमि महाराष्ट्र के कोंकण प्रदेश के रत्नागिरि नामक स्थान पर हुआ। तिलक का  वास्तविक नाम केशव था। तिलक को बचपन में बाल या बलवंत राव के नाम से पुुकारा जाता था। तिलक के पिता गंगाधर राव प्रारंभ में अपने कस्बे की स्थानीय पाठशाला में एक शिक्षक थे। बाद में थाने तथा पूना जिले में सरकारी स्कूलों में सहायक इंस्पेक्टर बन गए। पिता के सहयोग के फलस्वरूप वे संस्कृत, गणित और व्याकरण जैसे विषयों में अपनी आयु के बालकों में बहुत आगे थे। मेधावी होने के कारण उन्होनेंं दो वर्षों में तीन कक्षाएं भी उत्तीर्ण कीं ।

तिलक का विवाह 15 वर्ष की आयु में ही हो गया। उनके विवाह के कुछ समय पश्चात ही  उनके पिता का स्वर्गवास हो गया। माता पिता के निधन के पश्चत तिलक के पालन पोषण का भार उनके चाचा पर पड़ गया। तिलक ने सन् 1872 में मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण की तथा सन 1876 में बीए की परीक्षा पास की तथा 1879 में एलएबी की परीक्षा पास की। लोकमान्य तिलक का जब राजनैतिक पर्दापण  हुआ तब देश में राजनैतिक अंधकार छाया हुआ था। दमन और अत्याचारों के काले मेघों से देश आच्छादित था। जनसाधारण में इतना दासत्व  उत्पन्न हो गया था कि स्वराज  और स्वतंत्रता का ध्यान तक उनके मस्तिष्क में नहीं था। उस वक्त आम जनता में इतना साहस न था कि वह अपने मुंह से स्वराज का नाम निकाले। ऐसे कठिन समय में लोकमान्य तिलक ने स्वतंत्रता के युद्ध की बागडोर संभाली।

सन् 1891 में उन्होंने केसरी और मराठा दोनों ही पत्रों का संपूर्ण भार स्वयं खरीदकर अब इन्हें स्वतंत्र रूप से प्रकाशित करना शुरू कर दिया। अपनी प्रतिभा  लगन और अदम्य  कार्यशक्ति के बल पर शीघ्र ही जनक्षेत्र में अपना स्थान बना लिया।उनकी लौह लेखनी से ही केसरी और मराठा महाराष्ट्र के प्रतिनिधि पत्र बन गए।

केसरी के माध्यम से समाज में होने वाले अत्याचारों के खिलाफ आवाज उठाने पर तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। तिलक को राजद्रोही घोषित कर छह वर्ष का कालापनी और एक हजार रुपए का अर्थदंड दिया गया। इस दंड से सारे देश में क्रोध की लहर दौड़ गई। जनता द्वारा सरकार का विरोध किया गया। बाद में सरकार ने थोड़ा झुकते हुए उन्हें साधारण सजा सुनाई। उन्हें कुछ दिन बाद अहमदाबाद तथा बाद में बर्मा की मांडले जेल भेज दिया गया।

जब तिलक को सजा सुनाई जा रही थी उस समय में भी उनके मन में घबराहट नहीं हुई। उस समय भी उन्होनें  यही कहा था कि यद्यपि ज्यूरी ने मेरे खिलाफ राय दी है फिर भी मैं निर्दोष हूं। वस्तुत: मनुष्य की शक्ति से भी अधिक शक्तिशाली दैवी शक्ति है। वही प्रत्येक व्यक्ति और राष्ट्र के भविष्य की नियंत्रणकर्ता  है। हो सकता है कि देश की यही इच्छा हो कि स्वतंत्र रहने के बजाय कारागार में रहकर कष्ट उठाने से ही मेरे अभिष्ट कार्य की सिद्धि में अधिक योग मिले। उन्होंने एक बार कहा था कि साक्षात परमेश्वर भी मोक्ष प्रदान करने लगे तो मैं उनसे कहूंगा पहले मुझे मेरा देश परतंत्रता से मुक्त देखना है।

जेल यात्रा के दौरान उन्होनें लगभग पांच सौ ग्रंथों का गहन अध्ययन किया  तथा गीता रहस्य नामक गं्रथ की अमर रचना की। 31 जुलाई 1920 की रात को सदा के लिए अंतिम सांस ली। उनका धैर्य कभी कम नहीं हुआ और निराशा उनके जीवन को छू तक न सकी। उनके अलौकिक गुणों को धारण करना ही उनका स्मरण है।  ऐसे देशभक्त एवं वीर पुरुषों से प्रेरणा लेकर अपने जीवन को देश तथा समाज के कल्याण में लगाना चाहिए, ताकि भारत की स्वतंत्रता एकता व अखंडता कायम रहे।

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