-लक्ष्मीनारायण भाला
आंदोलनकर्ताओं के मददगार
प्रशासन भ्रष्टाचार में लिप्त है, देश की आर्थिक स्थिति चरमरा चुकी है, न्याय व्यवस्था सत्ताधारियों के अनुकूल काम नहीं कर रही है, छात्र और जननेता अराजकता फैला रहे हैं, सभी प्रचार माध्यम सरकार को कोस रहे हैं और विरोधी दल इन सभी स्थितियों का लाभ उठाकर एकजुट हो रहे हैं, ऐसी स्थिति में क्या किया जाए? इन प्रश्नों का समाधान खोजने की प्रकिया में इंदिरा गांधी के अंतर्मन की एक-एक परत हटती जा रही थी। परिणामत: अंतर्मन में आवृत्त हुई तानाशाही प्रवृत्ति अनावृत्त होकर इंदिरा गांधी के मन-मस्तिष्क पर छा गई । लोकतंत्र नहीं तानाशाही। बस! यही एकमात्र उपाय है। यह निर्णय ‘आत्मा की आवाज’ के नाम पर ले लिया गया । किसी प्रकार की आपदा के न होते हुए भी देश की आर्थिक स्थिति को ठीक करने के नाम पर ‘आपातकाल’ घोषित हुआ।
रातों-रात समाचार पत्रों पर पांबदी, इकठ्ठा होने पर पांबदी , विरोध जताने पर पांबदी और ऐसा करने वाले संभावित जननेताओं की गिरफ्तारी के फरमान जारी हुए। 25 जून 1975 की उस काली रात ने 26 जून के समाचार पत्रों के संपादकीय लेखों को निगल लिया। रातों-रात सैंकड़ों जननेताओं एवं प्रमुख राजनेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया । देश में सन्नाटा छा गया। समाजसेवी, देशप्रेमी और लोकतंत्र के विश्वासी बुद्धिजीवी किंकर्तव्यविमूढ़ हुए। दिग्भ्रमित हुए। अगले ही कुछ दिनों में इंदिरा गांधी के इस कदम की सराहना करते हुए प्रमुख समाजसेवी महात्मा गांधी के अनुयायी आचार्य विनोबा भावे ने इसे ‘अनुशासन पर्व’ का प्रमाण पत्र देकर आम जनता को भी दिग्भ्रमित कर दिया। कुछ ही दिनों बाद राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ को प्रमुख लक्ष्य मानकर कुछ संगठनों को अवैध घोषित कर उनकी गतिविधियों पर पांबदी लगा दी गई। पुलिसराज कायम हो चुका था। खुलेआम की जा रही लोकतंत्र की इस हत्या का खुलेआम विरोध न हो पाए ऐसी चाक-चौबंद व्यवस्था कर दी गई।
जब खुलेआम कुछ करने की स्थिति न हो तो भूमिगत काम प्रारंभ होने लगते हैं। इस मानवीय प्रवृत्ति को संगठन का सहारा मिला और भूमिगत आंदोलन की रूपरेखा बनी। संगठन शास्त्र के जानकार एवं संगठन कुशल संघ के सैकड़ों स्वयंसेवक, कार्यकर्ता एवं अधिकारी भूमिगत हो गए। अपनी वेशभूषा, नाम एवं रहन-सहन के तरीके बदलने का ही अर्थ था भूमिगत होना। देशभर में सैंकड़ों लोग भूमिगत हुए। लेखक स्वयं (लक्ष्मीनारायण भाला) ‘अनिमेष गुप्त’ कहलाने लगे तो गोविंदाचार्य ‘रामभरोसे तिवारी’ बने। सूर्यकांत केलकर ‘चंद्रकांत गोडबोले’ बनकर प्रवास करने लगे। दत्तोपंत ठेंगडी, मोरोपंत पिंगले, माधवराव बनहट्टी , भाऊराव देवरस, प्रो. राजेंद्र सिंह उपाख्य रज्जू भैया आदि सैकड़ों लोग भूमिगत होकर खुलेआम प्रवास करते रहे, बैठकें लेते रहे, रणनीति बनाते रहे। विवेकानंद केंद्र के संस्थापक एकनाथ रानडे सरकार और संगठन के बीच मध्यस्थता का दायित्व निभाते रहे। इसी भूमिगत व्यवस्था के द्वारा कारागार में बंद लोगों के परिवारों की चिंता करने के साथ-साथ लोकनायक जयप्रकाश नारायण की चिकित्सा एवं देखभाल के लिए अर्थ संग्रह भी होता रहा। कोलकाता से गोविंदभाई श्राफ के एक्सेल ग्रुप से मासिक 10 हजार रुपए प्राप्त कर पटना में रामभरोसे तिवारी के माध्यम से लोकनायक तक पहुंचाने का कार्य करीब 10 माह तक खुद इस लेखक ने निभाया था। इसी भूमिगत व्यवस्था से संघ पर लगे प्रतिबंध को हटाने एवं कारागार में बंद निर्दाेष लोगों को छुड़वाने की मांग को लेकर सत्याग्रह का दौर चला। 14 नवंबर 1975 से 26 जनवरी 1976 तक चलने वाला यह महासत्याग्रह लोकतंत्र की बहाली के लिए किया गया दुनिया का सबसे बड़ा अहिंसात्मक सत्याग्रह माना जाता है। भूमिगत रहते हुए खुला सत्याग्रह करवाना अपने आप में एक रोमांचक कार्य था। इस रोमांचक कसरत में कई भूमिगत कार्यकर्ता अपनी असली पहचान उजागर होने के कारण पकड़े भी गए। प्रताड़ित होकर कई प्रकार की यातनाओं के शिकार भी हुए। कैदी रहे कविराय अटल बिहारी वाजपेयी देश में हो रहे इन भूमिगत आंदोलनों से अवगत होते रहते थे। उसी का परिणाम था कि उनकी कलम से उनके मन का विश्वास इन शब्दों में दहाड़ा था- अनुशासन के नाम पर अनुशासन का खून/भंग कर दिया संघ को कैसा चढ़ा जुनून/कैसा चढ़ा जुनून/मातृ-पूजा प्रतिबंधित/कुलटा करती केशव-कुल की कीर्ति कलंकित/कह कैदी कविराय, तोड़ कानूनी कारा/गूंजेगा भारत माता की जय का नारा। अटलजी की यह कविता सबको प्रेरणा देती थी, नए आंदोलनकारियों को बल देती थी। भारत जैसे विशाल देश में तानाशाही चलने वाली नहीं थी। आखिरकार इंदिरा गांधी को हार माननी पड़ी थी और उन्हें आपातकाल के कदम पीछे करने पड़े थे। 1977 के लोकसभा चुनावों में इंदिरा गांधी की ऐतिहासिक पराजय के बाद एक बार फिर लोकतंत्र का उदय हुआ और इस प्रकार भूमिगत लोगों का घुटनभरा जीवन खुली सांस लेने लगा।