-कृष्णमोहन झा
- विश्लेषक
देश के पांच राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव परिणाम घोषित हो चुके हैं। पं. बंगाल, तमिलनाडु, असम और केरल में कांग्रेस ने अपनी जो फजीहत कराई है उसकी क्षतिपूर्ति पुडुचेरी में मिली सफलता से नहीं हो सकती। अगर पुडुचेरी को खोकर वह असम अथवा केरल में अपनी सरकार बना लेती तो उसकी नाक बच सकती थी परंतु अब तो वह पुडुचेरी में भी अपनी जीत का जश्न मनाने की स्थिति में नहीं है। दरअसल पं. बंगाल, असम, तमिलनाडु और केरल में जिस शर्मनाक हार का सामना उसे करना पड़ा है उसकी आशंका तो कांग्रेस को पहले से ही थी फिर भी वह उम्मीद लगाए बैठी थी कि शायद बिल्ली के भाग से छींका टूट जाए। परंतु भारतीय जनता पार्टी तो उस छींके को ही ले उड़ी और अब कांग्रेस के पास सिर धुनने के अलावा कोई चारा भी नहीं बचा है। ताजा चुनाव परिणामों ने कांग्रेस को सदमे की स्थिति में नहीं पहुंचाया बल्कि अंदर तक इतना डरा दिया है कि उसे पैरों तले जमीन का अहसास ही नहीं हो पा रहा है।
कांग्रेस ने इन चुनावों में अपने आपको एक अवसरवादी राजनीतिक पार्टी के रूप में पेश करने की कीमत भी चुकाई है। केरल में उसने मार्क्सवादी दल का विरोध किया और पं. बंगाल में मार्क्सवादी दल से हाथ मिलाए। पं. बंगाल में मार्क्सवादी दल से हाथ मिलाकर उसने अनेक सीटें खो दी। पं. बंगाल में उसने उस दल से हाथ मिलाकर अपनी फजीहत कराई जिसको राज्य की जनता अब कभी सत्ता में नहीं देखना चाहती। इसलिए उसका साथ देने वाली पार्टी को सबक सिखा दिया। केरल में कांग्रेस को इसलिए मुंह की खानी पड़ी क्योंकि मार्क्सवादी दल के खिलाफ बोलने के लिए वह खुद नैतिक रूप से तैयार नहीं कर पाई।
चूंकि कांग्रेस में इस समय नेतृत्व की बागडोर सोनिया गांधी एवं राहुल गांधी के हाथों में है इसलिए चार राज्यों में मिली शर्मनाकर हार पर उनकी प्रतिक्रिया सर्वाधिक महत्वपूर्ण है, परंतु दोनों की प्रतिक्रिया यह संदेश कतई नहीं देती कि इस शर्मनाक हार की जिम्मेदारी वे अपने कंधों पर लेने के लिए तैयार हैं। राहुल गांधी ने कहा है कि जनता का फैसला स्वीकार है और अब हम लोगों का विश्वास जीतने के लिए और कड़ी मेहनत करेंगे। कुछ यही प्रतिक्रिया सोनिया गांधी की ओर से भी आई है। ये प्रतिक्रिया बहुत ही घिसी पिटी प्रतिक्रिया है जो हर हारने वाली पार्टी की ओर से दी जाती है। दरअसल सोनिया गांधी और राहुल गांधी में से पार्टी का कोई भी एक सर्वोच्च नेता अगर इस शर्मनाक हार की जिम्मेदारी अपने कंधों पर ओढ़ने का नैतिक साहस दिखाते हुए अपने पद से इस्तीफे की पेशकश कर देता तो जरूर माना जा सकता था कि पार्टी ने अपनी हार को गंभीरता से लिया है, परंतु कांग्रेस तो सोनिया और राहुल गांधी पर इतनी अधिक आश्रित हो चुकी है कि इनमें से किसी भी एक नेता का इस्तीफा पार्टी स्वीकार नहीं कर सकती। दरअसल, इस्तीफा बहुत दूर की बात है कांग्रेस तो उनकी छाया से भी दूर होने से डरती है। जरा सोचिये अगर सोनिया या राहुल गांधी से कोई भी एक नेता अपना इस्तीफा देने की पेशकश कर भी दे तो कांग्रेस उनका इस्तीफा स्वीकार कर लेने का साहस जुटा पाएगी? कतई नहीं। यहां कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह की प्रतिक्रिया का जिक्र उल्लेखनीय है। उन्होंने पार्टी में बड़ी सर्जरी की आवश्यकता जताई है लेकिन उन्होंने यह भी कहा है कि पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी को ही सर्जन की भूमिका निभानी है। दिग्विजय सिंह कहते हैं कि सर्जन को ही यह तय करना है कि कैसी सर्जरी की जाए। दिग्विजय सिंह ने सर्जरी की जरूरत तो बताई है परंतु सर्जन की योग्यता पर कोई संदेह नहीं जताया है।
दरअसल सोनिया गांधी और राहुल गांधी को ही पार्टी का सर्वाधिक लोकप्रिय चेहरा मानने की भूल ने ही कांग्रेस को अपने अब तक के इतिहास में सबसे बुरे दिन देखने के लिए विवश किया है। पिछले लोकसभा चुनावों में अपनी शर्मनाक फजीहत कराने के बाद से लेकर अभी तक कांग्रेस के लगभग सभी बड़े नेताओं ने यह कहने से परहेज किया है कि राहुल गांधी न तो सांगठनिक कौशल के धनी हैं और न ही उनसे पार्टी को सक्षम नेतृत्व प्रदान करने की क्षमता है।
सोनिया गांधी पार्टी अध्यक्ष होते हुए भी उतनी सक्रिय नहीं जितने सक्रिय उपाध्यक्ष की आवश्यकता आज कांग्रेस पार्टी को है। राहुल गांधी कांग्रेस के राष्ट्रीय उपाध्यक्ष हैं और पार्टी में दूसरे सर्वोच्च पदाधिकारी हंै, इस नाते पार्टी की लाज बचाने की जिम्मेदारी उन्हें ही अपने कंधों पर लेना है, लेकिन दिक्कत यही है कि पार्टी का लोकप्रिय चुनावी चेहरा बनने की प्रतिभा उनके अंदर नहीं है। उन्होंने अभी तक जो भी इम्तिहान दिए हैं उनमें से अधिकांश में उनको असफलता का मुंह देखना पड़ा है। अगर भूले से किसी इम्तिहान में वे पास भी हुए हैं तो उसके पीछे दूसरे कारण थे। कांग्रेस उनको चुनावी चेहरा बनाकर अब प्रयोग करने की भूल करती रहेगी तो निश्चित रूप से भाजपा के कांग्रेस मुक्त नारे की पूर्णता की दिशा में कदम बढ़ाने से अधिक कुछ नहीं होगा।
जो संभावना सबसे बलवती है वह यह कि प्रियंका गांधी वाड्रा को पार्टी की कमान सौंपने का विकल्प कांग्रेस चुन ले। पिछले कुछ समय से राबर्ट वाड्रा अपने भूमि सौदों को लेकर जिस तरह बचाव की स्थिति में हैं, उसने प्रियंका गांधी को भी निश्चित रूप से इस पशोपेश में डाल रखा होगा कि कांग्रेस में महत्वपूर्ण जिम्मेदारी स्वीकर कर लेना कितना उचित होगा। उत्तर प्रदेश में तो कांग्रेस के अंदर यह मांग तेजी से उठ रही है कि प्रियंका गांधी वाड्रा को पार्टी का चुनावी चेहरा बनाकर विधानसभा चुनावों का सामना किया जाए। कांग्रेस के उत्तर प्रदेश के रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने भी यही सुझाव दिया है। अब देखना यही है कि पार्टी राहुल या प्रियंका में से किस पर अधिक भरोसा करती है और प्रियंका गांधी वाड्रा को पार्टी ऐसा कोई प्रस्ताव स्वीकार्य है अथवा नहीं।