25 Apr 2024, 20:40:41 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

फटीचर सी साइकल ने कभी ख्वाब में भी नहीं सोचा होगा कि उसके दिन भी फिरेंगे। एक दिन वह भी कार से महंगी बिकने लगेगी। चमचमाती कारों में घूमने वालों को यह दुपहिया वाहन आजकल खूब लुभाने लगा है। बेचारी कार, अपनी पीड़ा कहे भी तो किससे कि नासपिटी साइकल जब डिक्की में मस्ती से लेटी हुई अपनी किस्मत पर इठलाती रहती है तो कार की छाती पर कैसे सांप लैटते रहते हैं। अब इन कारों को अपने किए पर पछतावा हो रहा है कि मालिकों को क्यों इतना आलसी बना दिया कि मुई साइकल उनके इनते मुंह लग गई। पिछले दिनों जब इसी कॉलम में कार ड्राइव करने को लेकर साइकल से जुड़ी यादों के पन्ने पलटे (कार सीखी तो जिंदगी आसान हो गई, 14 अगस्त 2015) तो कई मित्रों ने साइकल से जुड़ी अपनी यादों का जिक्र, किसा एक पत्रकार मित्र का कहना था अब साइकल दो से पांच-दस लाख तक की आने लगी है और कार के बाद बड़े घरानों में साइकल भी स्टेटस सिंबल हो गई है।

अच्छी तरह याद है छह-सात दशक पहले एक तो साइकल होना ही रूतबे की निशानी होती थी क्योंकि कार तो तब  नगर सेठ या रायबहादुर किस्म के किन्ही इक्का-दुक्का लोगों की हवेली की शोभा बढ़ाती थी। राऊ में कचोरी, खाने के लिए जाने से लेकर  देवास टेकरी पर माताजी के दर्शन को साइकल से जाने की कई याद जुड़ी है। और अब, बायपास का ऐसा जादू है कि देवास कब निकल गया, राऊ कब आया पता ही नहीं चलता। तब साइकल की पूछपरख ज्यादा थी। अब सेहत और साइकल का जूते-मौजे जैसा साथ हो जाने से साइकल के भाव ज्यादा ही बढ़ गए है। अब शादी-तिलक आदि समारोह में बाइक-कार देना फैशन बन गया है तब तो लड़की वाले ही हैसियत का अंदाज दहेज में बेटी को लोहे की बड़ी। पेटी (ट्रंक) रोडियो और दूल्हे को साइकल दी या नहीं इसी बात से लगाया जाता था। जैसे-जैसे दुल्हन के हाथ की मेहंदी का रंग उड़ता जाता, वैसे ही साइकल के डंडे-हैंडल आदि पर लगी पन्नियां भी फटती जाती थी। साइकल और पहियों की ताड़ियों की फीकी पड़ती चमक को संडे वाले दिन चमकाने का स्थायी काम करता था।

पत्नी को घर परिवार का प्रेम मिल रहा है या नहीं इससे अधिक दूल्हा साइकल पर प्रेम वर्षा करता था। मंडप और शादी के लिए लगे भोंगे तो दो-चार दिन में उतर जाते थे लेकिन दहेज में मिले रेडियो पर बिनाका गीतमाला सुनने के लिए पास पड़ोस के लोग शाम से ही जुड़ जाते थे। अमीर सयानी से ज्यादा जानकारी वाला गीतों की पायदान का लेखाजोखा डायरी में दर्ज रहता था। अंताक्षरी में विरोधी टीम को मजा चखाने वाली बहनों के लिए गीतों वाली ये डायरी गैस पेपर का काम करती थी। साइकल और रेडियो की जुड़व वाली दो जुगलबंदी हर परिवार की खट्टी-मीठ्ठी यादों का पिटारा आज भी हैं। अभी जब अखबार में खबर पढ़ी कि साइकल इंडस्ट्री के भीष्म पितामह ओमप्रकाश मुंजाल का निधन हो गया है तो इसलिए भी आश्चर्य हुआ कि मुंजाल निधन अखबारों जितनी सुर्खियां न्यू चैनलों में नहीं बन पाया। क्या सिर्फ इसलिए की साइकल अभी भी इस देश में उस वर्ग का प्रतिनिधित्व करती है जिन नंगे-भूखों को दिखाने में मीडिया को कोई लाभ नहीं मिलता।

चीन का साइकल प्रेम, विदेशों में साइकल से आते-जाते वहां के पीएम तो हमारी खबरों का विषय हो सकते है किंतु साइकल को लेकर मीडिया घटानों की दिलचस्पी सिर्फ उस वक्त ही नजर आती है जब प्रधानमंत्री या राज्यों के मुख्यमंत्री सप्ताह में एक दिन साइकल से आने-जाने  की घोषणा करते हुए फोटो सेशन करवाएं। इंदौर नगर निगम सभापति अजयसिंह नरूका साइकल से आने-जाने की कसम पर कायम है। लेकिन बाकी कही पार्षद अधिकारियों को यह हास्यास्पद लगता है। विपक्ष को भी साइकल बैलगाड़ी की सवारी तभी याद आती है तब पेट्रोल के दाम में आग लग जाए। कपड़ा मिले जब इंदौर की शान हुआ करती थीं तब साइकल का जलवा था। किराए से साइकल लेने के लिए भी इंतजार करना पड़ता था। स्कूल-कॉलेज में होने वाले झगड़ों में भी साइकलें बचाव और प्रहार का आसान साधन रहती थी। अब जब से एक रुपए में बाइक और कार घर लाने वाली  लोन स्कीम का प्रलोभन चल पड़ा है वर्षों से एक ही जगह रखे होने से कबाड़ हो चुकी साइकलें भंगार के भाव  भी नहीं बिक रहीं। फिर भी सुकून देने वाली बात यह है कि चर्बी घटाने से लेकर फेफड़े साफ रखने, खून पतला करने, कोलस्ट्रॉल घटाने के प्राकृतिक उपाय में वाकिंग, स्वीमिंग के साथ साइकिलिंग भी शामिल है। जिम और क्लब जाने वालों के लिए भी साइकल चलाना मजबूरी हो गई है पर आड़े आने वाली झिझक का रास्ता निकालने के लिए कार की डिक्की में साइकल साथ ले जाने का हल भी खोज लिया है।

यही वजह है कि आज बाजार में भारतीय कंपनियों के साथ ही चाइना की साइकल की भी खूब मांग है। लाखों की कीमत वाली इन साइकलों के मुकाबले तब साइकल का मतलब हीरो साइकल ही हुआ करती थी। ऐसी साइकल में भी डायनमो वाली साइकल की झांकी कुछ अलग ही रहती थी, पहिया घूमने के साथ ही लाइट जल उठती थी। आज तो रांग साइड में तीन सवारी बाइक सवार भी प्रेशर हार्न बजाते-लहराते हुए शान से निकल जाते है तब डबल सवारी साइकल वाली भी एमजी रोड थाना आने से पहले सवारी उतार कर आगे से फिर बैठा लेता था। अब किसी से कहो कि उस जमाने में साइकल, ठेलागाड़ी का नगर निगम से और रेडियो का डाकतार विभाग से वार्षिक लायसेंस बनवाना होता था तो बच्चों को मजाक लगेगा। देश के अच्छे दिन तो जब आना होंगे आ ही जाएंगे लेकिन सेहत को लेकर चिंता में घुले जा रहे संपन्न समाज की वजह से नेताजी की पार्टी सपा का चुनाव चिन्ह साइकल के तो अच्छे दिन आने लगे हैं। बस प्रार्थना है तो इतनी ही कि साइकल के इतने अच्छे दिन भी न आ जाएं कि आम आदमी का  साइकल खरीदने का सपना भी पूरा न हो सके।

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