19 Apr 2024, 03:10:47 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

दबंग दुनिया समूह के स्‍टेट एडिटर पंकज मुकाती की जमीनी टिप्पणी...

शनिवार को किसान आंदोलन (जायज मांग, नाजायज हिंसा, प्रताड़ना, मनमानी) का दसवां दिन बीता। किसानों का ये आंदोलन  शुरू शहर का दाना-पानी बंद करने से हुआ। दो दिन की शांति के बाद इसमें राजनीति और उपद्रवी घुस गए। बस, यहीं से आंदोलन  बिखर गया। कारण, इसके पीछे अपने हक की लड़ाई से ज्यादा उत्पात था। दरअसल आंदोलन करने वालों की मिट्टी अलग होती है। वे थकते नहीं, अनवरत अपने काम में लगे रहते हैं। उपद्रवी तो वक्ती होते हैं। क्या हिंसा, बसें फूंक देना, यातायात रोकना, लोगों को दूध, सब्जी के लिए तरसा देना किसी नतीजे पर ले जाएगा। थोड़ा पलटकर देखेंगे तो हम पाएंगे मात्र दस दिनों में हमने क्या-क्या खो दिया। 

सबसे पहले आर्थिक पहलू, प्रदेश की मंडियों और उससे जुड़े धंधों में कुल मिलाकर एक हजार करोड़ से ज्यादा का नुकसान प्रदेश ने झेला।  इससे किसकी जेब कटी। निश्चित ही किसान की। आखिर किसानों ने ये कैसा आंदोलन चलाया जिसमें नुकसान भी उनका ही हुआ। इतने बड़े कारोबार का फायदा भी मिलता तो किसानों के परिवारों को ही। आखिर किस पर दबाव बनाया आपने। सरकार या अफसरों तक अपनी मांगे सही ढंग से पहुंचाने में आंदोलन विफल रहा। कारण, दूसरे ही दिन इसकी दिशा भटक गई। पूरी सरकारी मशीनरी और सरकार का ध्यान हिंसा से निपटने में लग गया, किसानों की  मांगों पर नहीं। दूसरा, शहरों का दाना-पानी रोककर किसान जनता के बीच खलनायक बन गए।

मुख्यमंत्री के भोपाल के दशहरा मैदान में उपवास के पीछे भी किसानों के आंदोलन का दबाव नहीं, बल्कि हिंसा रोकने की कोशिश ज्यादा है। वे व्यथित दिखे। शिवराज ने साफ कहा, किसानों के साथ खड़ा हूं, मांगे भी मानूंगा। पर जनता की परेशानी की कीमत पर नहीं। राजधर्म निभाते हुए जनता की सुरक्षा भी करूंगा। हालांकि ये गौर करने वाली बात है कि मुख्यमंत्री के उपवास पर बैठने  वाले दिन प्रदेश में कहीं कोई हिंसा नहीं हुई। शिवराज के उपवास के साथ ही  प्रदेश की शांति ने ये भी साबित किया  कि शिवराज जननेता हैं। लोगों को उनकी बात पर अब भी भरोसा है। शिवराज दरअसल वो चेहरा हैं जो गांव और शहर को जोड़ता है। जितना शहरी लोग उन्हें अपना मानते हैं, उतना ही किसान और ग्रामीण भी उन पर हक जताते हैं। पर इस आंदोलन ने शहर और गांव के इस जुड़ाव को भी तोड़ा है। दस दिनों में शहरों और गांवों के बीच एक दरार सी खिंच गई। ये आज भले न दिख रही हो, पर आगे के लिए खतरा है। आखिर किसका दाना-पानी रोका आपने? कभी सोचा? इंदौर, भोपाल, जबलपुर, ग्वालियर जैसे शहरों में बड़ी संख्या में गांवों से आकर ही लोग  रहते हैं।

आपके बेटे-बेटी शहरों में आकर पढ़ते हैं। आपकी बेटी की ससुराल भी शहर में हो सकती है, आपके नाती-पोते भी दूध को तरसे होंगे। आखिर जनता का दूध, सब्जी बंद करने से क्या मिला?

से महिलाओं और बच्चों को उतारकर उन्हें खेतों में दौड़ाना क्या सही तरीका है। क्या इन बसों में किसानों के परिवार नहीं थे? क्या अब हमें  जातिवाद, क्षेत्रवाद के बाद शहरी और  ग्रामीण संघर्ष का भी सामना करना पड़ेगा? ये आंदोलन किसान ही नहीं सरकार के लिए भी  सबक है। दोनों, सोचें आखिर हासिल क्या हुआ ? 

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