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पौरुषविहीन प्रशासनिक, पुलिस व्यवस्था, जनप्रतिनिधि भी निकम्मे और बेशर्म

By Dabangdunia News Service | Publish Date: Jun 4 2017 12:52PM | Updated Date: Jun 5 2017 9:54AM
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  - इंदौर के किसान आंदोलन पर दबंग दुनिया समूह के स्‍टेट एडिटर पंकज मुकाती की जमीनी टिप्पणी...
 
पिछले तीन दिनों से पूरा इंदौर शहर बंधक है। किसानों (शहरी) प्रशासन और राजनेताओं के सौजन्य से हमारी जिंदगी पर खुलेआम प्रहार हो रहा है। जिंदा रहने की आजादी तक खतरे में दिख रही है। तीन दिनों में किसानों का प्रदर्शन और जनता की परेशानी लगातार बढ़ती जा रही है। लोग दूध और सब्जी के लिए मारे-मारे घूम रहे हैं। महिलाओं के हाथ से सब्जी लूटी जा रही है। औरतों, बच्चों के दोपहिया वाहन तक रुकवाकर उनकी चेकिंग की जा रही है। एक तरह से जिस आदमी के भी हाथ में दूध और सब्जी दिख जाए उसे प्रताड़ित किया जा रहा है। ये सब हो रहा है, पुलिस और प्रशासन के सामने। पर कहीं किसी स्तर पर चिंता, बेचैनी या इन उपद्रवियों से निपटने का कोई इंतजाम नहीं दिखता। 
 
पहले ही दिन से पूरे आंदोलन को बेहद हलके में लिया। प्रशासन इसकी गंभीरता पढ़ने में विफल रहा। इसका नतीजा, शनिवार रात किसान हिंसक हो गए। रानीपुरा  हादसा, निगमकर्मी की हत्या या किसान आंदोलन, शासन की ऐसी चूक का भुगतान कब तक आम आदमी करेगा, और क्यों? आखिर कोई इसकी जिम्मेदारी लेगा। जवाब देगा?
 
ऐसा नहीं है कि सब कुछ अचानक हुआ। पहले ही दिन से उग्रता दिखाई दे गई थी। लोग देर रात तक दूध की दुकानों पर कतार लगाते दिखे। कई बच्चे दूध को तरस गए, मरीज परेशान हैं। पर अफसरों ने कागजों पर जमकर सबकुछ ठीक होने का भ्रम पैदा किया। जैसे- हालात सुधर रहे हैं, कल से आपूर्ति सामान्य, उज्जैन से दूध आएगा, साँची करेगा पूरी व्यवस्था, प्रशासन की निगरानी में बंटेगा कई हजार लीटर दूध। पर हकीकत में ऐसा कुछ नहीं हुआ। 
 
किसी अफसर ने आखिर इसे मैदानी तौर पर जांचने की जहमत क्यों नहीं उठाई। क्या कोई अफसर है जो सामने आकर ये कह सके -मैंने पूरा शहर घूमा। शायद कोई भी अफसर ऐसा नहीं कह  सकेगा। यदि अफसर मैदान में उतरता है तो उसका असर निचले स्तर तक दिखता है। उपर से यदि कोई प्रशासनिक विफलता पर सवाल उठा दे, तो अफसर बिफर पड़ते हैं, उनका जवाब होता है- आप ही संभाल लीजिए। 
 
नए दौर में स्मार्ट सिटी, स्वच्छ भारत, आॅनलाइन व्यवस्था, थंब सिस्टम और अवार्ड बटोरने के लिए बनती योजनाओं के लिए ही अफसर खड़े दिखते हैं। मंत्रियों के आगमन के अलावा अफसरों को कभी शहर को समझते नहीं देखा। आखिर आम आदमी से इतना दूर क्यों है अफसर ? आखिर क्यों नहीं पुलिस साए में दूध बंटवाने जैसे कोई व्यवस्था की गई। इस मुद्दे पर पुलिस और प्रशासन की बीच कोई ठोस संयुक्त मीटिंग भी नहीं हुई। एक बार फिर ये बात सामने आई कि पुलिस और प्रशासन के बीच तालमेल नहीं है। दो शीर्ष अफसरों की आपसी खींचतान  भी बीजलपुर में शनिवार रात सामने आई। इसी खींचतान का नतीजा ये रहा कि पुलिस तीन घंटे बाद उपद्रवियों को खदेड़ पाई। 
 
दरअसल, किसानों के नाम पर ये राजनीति का खेल है। प्रदर्शन करने वाले सिर्फ एक इलाके विशेष से हैं। हिंसा करने वालों में किसान कितने हैं, ये भी जांच का विषय है।  किसानों की मांग  जायज है, पर उसको मनवाने का तरीका बेहद गलत है। किसी भी जनप्रतिनिधि को ये हक नहीं कि प्रदेश भर में अपनी राजनीति को चमकाने के लिए वो किसानों की आड़ में ऐसा हिंसक और जनता को दर्द देने वाला खेल खेले। बड़ा नेता बनने की चाह अच्छी है, रहनी भी चाहिए पर जनता की कीमत पर नहीं। इसके आंदोलन की आड़ में एक सुनियोजित राजनीतिक समीकरण है ये इसकी उग्रता से साबित होता है। आखिर प्रदर्शन करने वाले किसान सुतली बम  और पटाखे लेकर क्यों आये थे? आखिर रहवासी इलाकों में लोगों के घरों में बम कोई किसान तो नहीं ही फेंकेगा।  
 
शहर में हर कोई जानता है, ये सुतली बम, पटाखे और मिट्टी वाले अनार किस विधानसभा क्षेत्र में बनते, बिकते हैं। जरूरत है, इन पटाखों को सुलगाने वाले राजनेताओं के पहचानने की। क्या वोट और अपना कद बढ़ाने के लिए इस हद तक नीचे गिर जाएंगे हम। इस मामले में शहर के सभी जनप्रतिनिधियों की बेशर्मी और निकम्मापन भी उजागर हुआ। कश्मीर, गाय, प्रियंका चोपड़ा की ड्रेस जैसे मुद्दे पर भी मैदान संभालने वाले हमारे  विधायक, पार्षद, राजनेता तक इस मुद्दे पर सामने नहीं आए। शराब दुकानों की तोड़फोड़ पर शराब माफिया के पक्ष में खड़े होने वाले और शराब का वितरण ठीक से हो सके इसके लिए पुलिस की सुरक्षा दिलवाने से लेकर अपने पटठों की फौज लगवाने वाले दूध के वितरण के लिए क्यों सामने नहीं आये।
 
किसी भी विधायक या पार्षद ने अपने इलाके में दूध और सब्जी के सुरक्षित वितरण के लिए न पुलिस मदद मांगी न खुद कुछ किया। अफसरों को छोड़िये, आखिर राजनेता किस मुँह से जनता के बीच घूमते हैं, उन्हें शर्म नहीं आती अपने नाकारापन पर।  वक्त है राजनीति के इस खेल में दूध का दूध और पानी का पानी करने का। 
 
आखिर इस आंदोलन से किसे क्या मिला ? किसानों को तो निश्चित ही कुछ नहीं मिला, मिलने की कोई संभावना भी नहीं। हकीकत ये है कि गांव में बड़ा वर्ग परेशान है, आखिर रोज इतना दूध वो कहां संभाले। एक करोड़ से ज्यादा के फल और सब्जी मंडी में सड़ गए है। कई हजार लीटर दूध बर्बाद हो चुका है। ट्रकों में भी फल और सब्जियां बर्बाद हो रही है। बच्चे दूध को तरस रहे हैं। आखिर इस तरह की त्रस्तता आम आदमी कब तक झेलेगा। 
 
रामधारी सिंह दिनकर ने शायद जनता को जगाने के लिए ही ये पंक्तियाँ लिखी होगी-- 
आज घना अंधकार तेरे पौरुष को चुनौती दे रहा है। नींद से जाग! आलस्य को झाड़ कर उठ खड़ा हो!  
वक्त है, इस पौरुषविहीन व्यवस्था को बदलने का। 
 

 

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