अनुप्रिया सिंह ठाकुर इंदौर। बंद कारखानों की कड़वी हकीकत है बाल मजदूरी। जहां बचपन कब बढ़ा हो जाता है, पता नहीं चलता। यहां घड़ी की सूइयां नहीं होतीं, मालिक की आवाज ही सुबह और रात से परिचय कराती है। परेशानी की बात यह है कि कुछ समय से इंदौर बाल मजदूरी का मरकज बन गया है, जहां लोग सुनहरे सपनों का सौदा कर दूरदराज से इन बाल मजदूरों को ले आते हैं। हालांकि कुछ ही समय में ये सपने उम्मीद हकीकत के आगे बौने हो जाते हैं और अपने परिवार के ये नन्हे जिम्मेदार बड़े।
मालिकों द्वारा शोषित इन बाल मजदूरों की हकीकत चौंकाने वाली है। इन्हें दिन में 13.5 घंटे काम करने के बदले महज छह रुपए दिए जाते हैं, यानी 30 दिन के सिर्फ 200 रुपए।
150 देकर 100 रु. वापस ले लेते थे
बिहार से आए 11 साल के शाहिद पिता मो. लतीफ की मानें तो सप्ताह के आखिरी दिन मालिक सद्दाम हुसैन उसे 150 रूपए देता था, लेकिन रविवार को स्पेशल खाना खिलाने का कहकर वह तुरंत ही 100 रूपए वापिस ले लेता था और सिर्फ 50 रूपए मेरे पास रह जाते थे। 12 साल के रहीम पिता निमियान अंसारी का भी यही कहना है। जबकि इन दोनों ही बच्चों को सुबह 9 से रात 11 बजे तक काम करना होता था।
माता-पिता को कितने रुपए भेजते हैं, पता नहीं
13 वर्षीय रामभजन गिरी सुबह नौ से रात 12.30 बजे तक बैग बनाता है, लेकिन मालिक संतोष कुमार एक भी रुपया नहीं देता। मालिक का कहना है वह रुपए माता-पिता को भेज देता है, कितने भेजता है, यह नहीं बताया।
ज्यादातर बच्चे बाहर के
कारखानों के मालिक या वे व्यक्ति, जो बिहार, यूपी या पश्चिम बंगाल के मूल निवासी होते हैं और वर्षों पहले वे भी बाल मजदूरी करने ही इंदौर आए थे। वहीं कुछ बच्चे अपने रिश्तेदारों के साथ यहां आते है।
यह हैं शहर के बाल मजदूरी वाले क्षेत्र
मांगलिया, देवास नाका क्षेत्र - यहां चॉकलेट की कई बड़ी फैक्ट्रियां हैं, जहां मांगलिया के आसपास के इलाकों के बच्चे काम करते हैं।
मूसाखेड़ी-खजराना - यहां बैग बनाने की फैक्ट्रियां और झाडू बनाने के कारखाने हैं, जिसमें स्थानीय के अलावा उत्तरप्रदेश के बच्चे काम करते हैं।
चंदननगर - इस क्षेत्र में चूड़ी बनाने के कारखाने हैं। जहां स्थानीय के साथ ही उत्तरप्रदेश के बच्चे काम कर रहे हैं।
सराफा- यहां बड़े स्तर पर ज्वेलरी बनाने का काम होता है। यहां प्रमुखता से पश्चिम बंगाल के बच्चे काम करते हैं।