कृष्णपाल सिंह इंदौर। शहर में हर साल दो-ढाई हजार पेड़ कट रहे हैं। कुछ पेड़ आंधी, तूफान व बारिश में गिर जाते हैं। इसके अलावा सालभर हजारों पेड़ों की छंटाई भी की जाती है। इससे निकलने वाली अरबों रुपए की लकड़ियों का कोई हिसाब नहीं है। अगर ध्यान दिया जाता तो सालभर में ढेरों बार नीलामी होती और निगम को अरबों रुपए की आय भी होती। नेहरू पार्क सहित अन्य स्थान लकड़ियों से भरे भी रहते।
निगम के कई कर्मचारियों की लकड़ी माफियाओं से तगड़ी सेटिंग के कारण निगम में अलाव जलाने के लिए भी पर्याप्त लकड़ी नहीं है। अगर दस साल का लेखा-जोखा देखा जाए तो अरबों रुपए की लकड़ी ये कर्मचारी सेटिंग से माफियाओं को बेच चुके हैं। इनके हौसले इतने बुलंद हैं कोई मेयर, कमिश्नर रहे ये अपना ‘काम’ कर जाते हैं।
ढेरों पेड़ थे सड़कों पर
एक वक्त था, जब शहर की मुख्य सड़कें पेड़ों से पटी रहती थीं और उनकी छांव में लोग घंटों समय गुजार देते थे। इन्हें हटाने के साथ ही इनकी लकड़ी भी किसी ने नहीं संभाली। इस कारण न तो पेड़ बच पाए और न ही इससे निकली लकड़ियां। अगर बात हाई कोर्ट से मालवा मिल तक की करें तो सड़क के दोनों ओर हजारों पेड़ थे। ऐसा ही रीजनल पार्क में भी था। ग्रेटर कैलाश, रणजीत हनुमान मंदिर, राजीव प्रतिमा से भंवरकुआं होते हुए नौलखा तक पेड़ों की भरमार थी। यहां भी लकड़ी तो करोड़ों की निकली, लेकिन चंद रुपयों के लालच में इसे बेच दिया गया। इस कारण अब माफियाओं के इस खेल पर अंकुश लगाने का वक्त आ गया है।
1.50 अरब की थी लकड़ियां
सड़क से पेड़ काटे गए या आंधी-तूफान में गिर गए। इसका लेखा-जोखा नहीं है। आंकड़ों की मानें तो 2006 से 2016 के बीच 25 हजार पेड़ काटे, जबकि तीन से पांच हजार पेड़ गिरे। इनमें पीपल, नीम, गुलेर, बबूल, बरगद, विलायती इमली, कबीट सहित अन्य प्रजाति के पेड़ शामिल हैं। एक पेड़ की कीमत 30 से 50 हजार, यानी 30 हजार पेड़ों से निकली लकड़ी की कीमत 1.50 अरब। ये आंकड़ा जरूर सभी के होश उड़ा सकता है, क्योंकि इतनी राशि की लकड़ियां गायब करा दी गर्इं और निगम खजाने में एक रुपए भी जमा नहीं हो पाए।
ऐसे करते हैं खेल
उद्यान विभाग के कर्मचारी सेटिंग से पेड़ों की लकड़ी ठिकाने लगा देते हैं। ये लोग जहां भी छंटाई या कटाई करते हैं, वहां ठेकेदार को बुलाकर लकड़ी गायब कराते हैं। इसके एवज में इन्हें मोटी रकम मिलती है। इसके अलावा उद्यान या घरों व चौराहों पर लगे पेड़ों की छंटाई में निकली लकड़ी का भी स्टोर करने से पहले सौदा कर देते हैं। इसमें निगम की टीम लकड़ियों को देखकर ठेकेदार से उसकी कीमत तय कर देती है। ये ठेकेदार लकड़ी उठाता है, फिर निगमकर्मियों को पैसा देता है। ये ठेकेदार अक्सर निगम की आड़ लेकर लकड़ी उठा ले जाता है।
पेड़ों का रखना चाहिए हिसाब
विशेषज्ञों के मुताबिक जो पेड़ बच गए हैं, उनका रिकॉर्ड बना लेना चाहिए, क्योंकि हर साल पेड़ लगाने वाली प्रोसेस है, रिकॉर्ड पर लाना चाहिए और उसे अपडेट करना चाहिए। आंकड़ों की मानें तो निगम सीमा में राजस्व रिकॉर्ड के अनुसार 35 हजार विशाल पेड़ हैं। अब इनका बूथवार, वार्ड या जोनवार हिसाब रखा जाए। इससे पता रहेगा कि किस जोन में कितने पेड़ हैं और कितने नए लगाए गए। ये सिस्टम बनेगा तो जो पेड़ कटेगा, निगम में उसका राजस्व जमा होगा। जब सिस्टम ही नहीं है तो पता कैसे चलेगा कि कहां कितने पेड़ कटे और लकड़ियां कहां गर्इं।
हर साल जमा हों करोड़ों रुपए
दस साल में 25 हजार से ज्यादा पेड़ काटे गए, जबकि करीब तीन से पांच हजार गिर गए। दो पेड़ की लकड़ी से एक ट्रक भर जाता है। एक ट्रक में 100 घनफीट लकड़ी आती है। इसमें न्यूनतम 30 हजार से डेढ़ लाख रुपए का एक ट्रक पड़ता है। इसकी किसी को जानकारी नहीं है। सही मायने में इनसे निकली लड़कियों का हिसाब रखा जाए तो हर साल निगम खजाने में करोड़ों रुपए जमा हों। - किशोर कोडवानी, समाजसेवी व याचिकाकर्ता
...तो केस दर्ज कराएंगे
लकड़ी बेच दी गई, लेकिन अब ये लापरवाही नहीं चलेगी। अगर किसी कर्मचारी की शिकायत मिली, तो उस पर कार्रवाई कर केस दर्ज कराएंगे।
- मनीष सिंह, कमिश्नर, निगम