इटावा। उत्तर प्रदेश में इटावा के लखना स्थित कालिका देवी का मंदिर मुगलकाल से ही हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक रहा है जिसका प्रधान सेवक आज भी दलित ही होता है। कालिका देवी का मंदिर मुगल काल से हिन्दू-मुस्लिम एकता का प्रतीक रहा है। द्वापर युग के महाभारतकाल के इतिहास को आलिंगन किए ऋषियों की तपोभूमि यमुना-चंबल समेत पांच नदियों के संगम पर बसी ऐतिहासिक नगरी लखना में स्थापित मां कालिका देवी का मंदिर देश के कोने-कोने में प्रसिद्ध है। लखना को प्राचीनकाल में स्वर्ण नगरी के नाम से जाना जाता था । यह मंदिर नौ सिद्धपीठों में से एक है।
मंदिर परिसर में सैयद बाबा की दरगाह भी स्थापित है। मान्यता है कि दरगाह पर सिर झुकाए बिना किसी की मनौती पूरी नहीं होती। मंदिर धर्म, आस्था, एकता, सौहार्द, मानवता तथा प्रेम की पाठशाला है। चैत्र तथा शारदेय नवरात्रि में यहां बड़ा मेला लगता है। मेले में देश के दूरदराज से आए श्रद्धालु अपनी मनौती मांगते हैं। कार्य पूर्ण होने पर ध्वजा, नारियल, प्रसाद एवं भोज का आयोजन श्रद्धाभाव से करते हैं। मंदिर करोड़ों लोगों की धार्मिक आस्थाओं का केंद्र है। इस मंदिर पर कई दस्यु सम्राटों ने ध्वज पताकाएं चढाई हैं जिनमें मोहरसिंह, माधोसिंह, साधवसिंह, मानसिंह, फूलनदेवी, फक्कड़ बाबा, निर्भय गुर्जर, रज्जन गुर्जर, अरबिंद, रामवीर गुर्जर तथा मलखान सिंह ने निडर होकर पुलिस के रहते ध्वज चढ़ाकर मनौती मांगी थी। इसके अलावा पूर्व प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू, मोतीलाल नेहरू तथा भारत के सुप्रसिद्ध वकील तेज बहादुर सप्रू आदि ने मां के दरबार में आकर दर्शन किए हैं। मां कालिका का मेला लगा है तथा बड़ी संख्या में श्रद्धालु दर्शन को आ रहे हैं और ज्वारे अचरी गाते एवं नाचते झंडा चढ़ा रहे हैं।
चैत्र तथा शरद नवरात्रि प्रारंभ होते ही कालिका शक्ति पीठ के दर्शन करने के लिए उत्तर प्रदेश, राजस्थान, मध्य प्रदेश गुजरात समेत देश के तमाम राज्यों से लोग आकर मां के दर पर दंडवत कर मनौतियां मांगते हैं। यह नगरी एक समय में कन्नौज के राजा जयचन्द्र के क्षेत्र में थी लेकिन बाद में स्वतंत्र रूप से लखना राज्य के रूप में जानी गई। मान्य कथाओं के अनुसार दिलीप नगर के जमींदार लखना में आकर रहने लगे थे। इस स्टेट के राजा जसवंत राव ब्राह्मण परिवार में जन्मे थे तथा ब्रिटिश हुकूमत में अंग्रेज शासकों ने उन्हें सर तथा राव की उपाधि से नवाजा था। बीहड़ क्षेत्र के मुहाने पर स्थित इस मंदिर के राजपरिवार के लोग उपासक थे। यमुना पार कंधेसी धार में उक्त देवी स्थल पर राजाजी नित्य यमुना नदी पार कर पूजा-अर्चना करने गांव जाते थे। बताया जाता है कि एक दिन राव साहब गांव देवी पूजा करने जा रहे थे। बरसात में यमुना नदी के प्रबल बहाव के चलते बाढ़ आ गई
और मल्लाहों ने उन्हें यमुना पार कराने से इंकार कर दिया। वे उस पार नहीं जा सके और न ही देवी के दर्शन कर सके जिससे राजा साहब व्यथित हुए और उन्होंने अन्न-जल त्याग दिया। उनकी इस वेदना से मां द्रवित हो गईं और शक्तिस्वरूपा का स्नेह अपने भक्त राव के प्रति टूट पड़ा। रात को अपने भक्त को सपने में दर्शन दिए और कहा कि मैं स्वयं आपके राज्य में रहूंगी और मुझे लखना मैया के रूप में जाना जाएगा। इस स्वप्न के बाद राव साहब उसके साकार होने का इंतजार करने लगे। इस बीच अचानक उनके कारिंदों ने बेरीशाह के बाग में देवी के प्रकट होने की जानकारी दी। सूचना पर जब राव साहब स्थल पर पहुंचे तो उन्होंने देखा कि पीपल का पेड़ धू-धू कर जल रहा है। चारों ओर घंटों और घड़ियाल की आवाज गूंज रही थी।
जब दैवीय आग शांत हुई तो उसमें से देवी के नवरूप प्रकट हुए जिसे देखकर राव साहब आह्लादित हो गए। उन्होंने वैदिक रीति से मां के नवरूपों की स्थापना कराई और 400 फुट लंबा तथा 200 फुट चौड़ा तीन मंजिला मंदिर बनवाया जिसका आंगन आज भी कच्चा है, क्योंकि इसे पक्का न कराने की वसीयत की गई थी। मंदिर के पुजारी अशोक दोहरे तथा अखिलेश दोहरे के पूर्वज महामाया भगवती देवी की पूजा-अर्चना करते आ रहे हैं । दलित पुजारी के प्रति लोगों में सम्मान का भाव है। इस प्रथा से समाज के सवर्ण वर्ग अथवा ब्राहमणों को भी कोई गुरेज नहीं है । वह इसे आपसी सद्भाव की एक मिसाल मानते है। इसके साथ ही इसी मंदिर से सटी मजार भी गंगा-जमुनी तहजीब की इबारत लिखती है। लखना के पूर्व नगर पंचायत अध्यक्ष अशोक सिंह बताते हैं कि इस मंदिर के प्रति लोगों में इस कदर आस्था बनी कि देश के तमाम प्रांतों के लोग यहां माता के दर्शन को आते हैं।