सच्ची और विशुद्ध शक्ति का प्रतीक लूटना नहीं, बल्कि लुटाना होता है। देने के लिए साहस चाहिए और लेने के लिए लालच। भगवान राम ने जो अपना राज्य भरत को दिया, वह भय से नहीं, बल्कि देने की शुद्ध भावना से प्रेरित होकर दिया। उनके देने में एक प्रकार का सुख है, लुटाने का सुख और जब लुटाना सुख बन जाता है, तो वह कर्म एक आध्यात्मिक कर्म बन जाता है। सब कुछ त्यागकर, खड़ाऊं तक को त्यागकर राम इस भाव की पुष्टि करते हैं कि उदारता शक्ति की निशानी है।
राम ने यदि किसी एक नकारात्मक भाव पर सबसे अधिक विजय प्राप्त की है, तो वह क्रोध है। ऐसा नहीं कि राम को क्रोध आया ही नहीं। आया है। लेकिन वह अति पर उपजा क्रोध है, न कि सामान्य-सी बातों पर पैदा हो जाने वाला गुस्सा। राम ने अपने इस गुस्से को नियंत्रित करने के लिए जो विधि अपनाई, वह थी जीवन में अतिशय विनम्रता के भाव को उतार लेने की। कोमलता को इतना अधिक अपना लो कि चट्टान से टकराने का असर अंदर तक पहुंच न पाए, मानो कि रुई के ढेर पर किसी ने पत्थर का एक टुकड़ा गिरा दिया हो। भगवान राम को आप कहीं भी अपने दायित्वों से बचते हुए नहीं पाएंगे, यहां तक कि दूसरों के लिए भी नहीं। राम-रावण युद्ध चल रहा था। विभीषण राम के साथ। रावण ने विभीषण के ऊपर एक प्रचंड शक्ति छोड़ी। इस भयानक शक्ति को आता देखकर राम ने सोचा कि यह मेरा वचन है कि मैं अपनी शरण में आए हुए दुखी व्यक्ति की रक्षा करूंगा। इसी को कार्यरूप देने के लिए श्री राम ने विभीषण को पीछे कर लिया और सामने होकर उस शक्ति के आघात को स्वयं सह लिया। ऐसा था भगवान राम का चरित्र।