भगवान विष्णु को समर्पित कंबोडिया का अंगकोर मंदिर अपने स्थापत्य, शिल्पकला, मूर्तकला एवं विशालता व भव्यता के लिए विश्व प्रसिद्ध है। दक्षिण-पूर्व एशिया में अपने समय का यह सबसे बड़ा तीर्थ स्थल रहा है। भारत वर्ष से बहुत बड़ी संख्या में तीर्थ यात्री वर्ष भर अंगकोर मंदिर में दर्शन, पूजन, अर्चन के लिए कंबोडिया जाते थे, क्योंकि भारतीय संस्कृति-परंपरा में तीर्थ यात्राओं का अत्यंत महत्व रहा है।
भारत के अतिरिक्त एशिया के अन्य देशों के लोग भी इस मंदिर को देखने व श्रद्धा-भक्ति प्रकट करने आते थे। कंबोडिया के इस भगवान विष्णु के मंदिर में कभी मंत्रोच्चार होता था, शंख ध्वनि गूंजा करती थी, घंटा-घड़ियाल बजते थे, नगाड़ों की आवाज से वायुमंडल सहित समस्त समाज में स्फुरण होता था, वहीं मंदिर धीरे-धीरे वनों की छत्रछाया में विलुप्त हो गया, उस पर मिट्टी-कंकड़ों का आच्छादन हो गया और काल के प्रवाह में ऐसा अदृश्य हुआ कि उसका नाम ही लोग भूल गए।
लेकिन इतिहास का एक चक्र पूरा हुआ और प्राकृतिक कृपा से यह मंदिर एक बार पुन: प्रकट हुआ। भारत से कंबोडिया जाने के सभी मार्ग अवरुद्ध हो चुके थे। परिस्थितियां बदल गई थीं। सामान्य तीर्थ यात्रियों की तो कौन कहे, साधु-संतों के लिए भी अंगकोर का दर्शन करना संभव नहीं रहा। भारत से कंबोडिया के जिस स्थल मार्ग पर कभी भगवाधारी साधु महात्मा विष्णु सहस्रनाम का जप करते हुए अंगकोर का दर्शन करने के लिए जाते प्राय: मिल जाते थे, उन मार्गों पर सन्नाटा छा गया।
कंबोडिया पर कब्जा करने के बाद कम्युनिस्टों ने तो अंगकोर मंदिर को ही अपनी लड़ाई का केंद्र बना दिया। स्थितियां सामान्य हो जाने पर भारत सरकार के पुरातत्व विभाग ने लाखों रुपए खर्च करके मंदिर के मूल स्थापत्य को संरक्षित करने का प्रयास किया। अंगकोर मंदिर की तीर्थ यात्रा का सबसे सुगम स्थल मार्ग मणिपुर के मोरेह ग्राम से प्रारंभ होता था।
मोरेह से पहले विष्णुपुर नामक ग्राम पड़ता है, जिसमें भगवान विष्णु का अति प्राचीन मंदिर आज भी स्थित है। इस मंदिर में पूजा-अर्चना के बाद यह यात्रा शुरू होती थी। मोरेह भारत का अंतिम ग्राम है, जो म्यांमार, ब्रह्मपुत्र की तटीय सीमा पर स्थित है। मोरेह से मांडले की दूरी 375 मील है और यह सड़क मार्ग अब यातायात के लिए उपलब्ध है।
मांडले से रंगून होते हुए थाईलैंड (प्राचीन, स्याम) के माईसेत का सड़क मार्ग भी उपलब्ध है। माइसेत से कंबोडिया के अंगकोर तीर्थ स्थान तक सहज ही जाया जा सकता है। सड़क की स्थिति चाहे उतनी अच्छी नहीं है, लेकिन तब भी इतना निश्चित है कि यदि प्रयास किया जाए, तो भारत से म्यांमार व थाईलैंड होते हुए कंबोडिया में अंगकोर मंदिर तक भी यह तीर्थयात्रा सैंकड़ों वर्ष बाद भी फिर से प्रारंभ की जा सकती है। कंबोडिया में लोगों का विश्वास है कि जो पुण्य सभी तीर्थ-स्थलों के दर्शनों से मिलता है वही पुण्य मात्र अंगकोर मंदिर के दर्शन से ही मिल जाता है।