भगवान सूर्य के मानवीय स्वरूप का इतनी सहजता से और इतने कम शब्दों में सटीक चित्रण मगध की लोक संस्कृति की अपनी विशिष्टता है जो छठ के गीतों में घुल कर उभर रही है। दीपावली खत्म होते ही पूरे इलाके में छठ के गीत गूंजने लगे हैं और देव में तो छठ के रंग ही कुछ निराले होते हैं। छठ के गीतों में मगध की स्थानीय संस्कृति कुछ इस कदर रची बसी है कि ये गीत अपने आप में विशिष्ट हो उठे हैं। सबसे आश्चर्य की बात तो ये हैं कि तमाम आधुनिकताओं के बाद भी छठ पूजा के गीतों में अभी भी मौलिकता बची है। इसकी वजह ये है कि लोक भाषा में बुने गए ये गीत लोक मानस में वैदिक मंत्रों जैसी जगह बना चुके हैं जिनमें छेड़छाड़ का साहस कोई न कर सका। छठ पूजा की तैयारियों को लेकर गाए जाने वाले एक अन्य गीत में भी ये तत्व साफ नजर आता है जिसमें आंचल से आंगन बुहारने के प्रतीक के सहारे व्रत की महिमा को रेखांकित किया गया है
अंचरा से अंगना बहारब, छठी मइया अयतन आज
इतना ही नहीं, घाट तक अर्घ्य के लिए ले जाए जाने वाले टोकरे-बहंगी की लचक में भी लोक संस्कृति ने अपने सुर-लय ढूंढ लिए हैं - कांचे ही बांस के बहंगिया, बहंगी लचकत जाए पूरे इलाके में जिन घरों में छठ पूजा होनी होती है वहां अहले सुबह से ही छठ के गीत गूंजने लगते हैं। देव में भी आसपास के गांवों की महिलाएं गीत गाती देव पहुंचती हैं और वहां मंदिर की सफाई करती हैं। यह परंपरा कई पीढ़ियों से निभाई जा रही है।