कुछ पुराणों का मत है कि दैत्यराज बलि का वध करने के लिए भगवान त्रिलोकीनाथ ने वामन-अवतार धारण किया और उसके गर्व को चूर किया। इस समय भगवान के चरण स्पर्श से दैत्यराज बलि का सारा शरीर रत्नों का बन गया, तब देवराज इंद्र में उस पर वज्र की चोट की, इस प्रकार टूट कर बिखरे हुए बलि के रत्नमय खंडों को भगवान शिव ने अपने त्रिशूल में धारण कर लिया और उसमें नवग्रह और बारह राशियों के प्रभुत्व का आधार करके पृथ्वी पर गिरा दिया। पृथ्वी पर गिराए गए इन खंडों से ही विभिन्न रत्नों की खानें पृथ्वी के गर्भ में बन गईं।
रत्नों की उत्पत्ति के विषय में एक अन्य कथा भी ग्रंथों में आती है। देवता और दैत्यों ने समुद्र मंथन किया तो 14 रत्न पदार्थ निकले। उसमें लक्ष्मी, उच्चैश्रवा, ऐरावत आदि के कौस्तुभ मणि को अपने कंठ में धारण कर लिया। इससे निकले अमृत को लेकर देव और दानवों में संघर्ष हुआ। अमृत का स्वर्ण कलश असुरराज लेकर भाग खड़े हुए।
कहते हैं कि इस छीना-झपटी में अमृत की कुछ बूंदें जहां-जहां गिरीं वहां सूर्य की किरणों द्वारा सूखकर वे अमृतकण प्रकृति की रज में मिश्रित होकर विविध प्रकार के रत्नों में परिवर्तित हो गए।