-रवीश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार
फुरसत के पल में, जब दूसरा कुछ न सूझे तो हम सबका एक शगल होता है, कलम लेकर किसी लड़की के फोटो पर दाढ़ी-मूंछ चस्पा करना या कि किसी पुरुष चेहरे को लड़कीनुमा बनाना! आपने भी कभी-न-कभी ऐसी कलमकारी की होगी और फिर अपनी ही निरुद्देश्यता पर शर्माए होंगे। ऐसे ही कई कारनामे इन दिनों राजधानी दिल्ली के निरुद्देश्य गद्दीनशीं कर रहे हैं, जिसमें चापलूसी का तड़का भी जी भरकर उड़ेला जा रहा है। सबसे ताजा है वह कारनामा जो सरकारी खादी-ग्रामोद्योग आयोग ने किया है। उसने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के फोटो पर कलमकारी कर उसे महात्मा गांधी बनाने की कोशिश की है या फिर महात्मा गांधी के फोटो पर कलमकारी कर, उसे नरेंद्र मोदी बनाने का उपक्रम किया है। दोनों ही मामलों में किरकिरी तो नरेंद्र मोदी की ही हुई है।
देश में इससे बड़ी हलचल पैदा हुई है। यहां तक कि खादी-ग्रामोद्योग आयोग के कर्मचारी भी अपने ही नौकरीदाताओं के खिलाफ खड़े हो गए हैं। ऐसा इसलिए हो रहा है कि चापलूसों की फौज नरेंद्र मोदी का कितना भी कार्टून बनाए देश को उससे फर्क नहीं पड़ता है, लेकिन यहां मामला यह बना है कि नरेंद्र मोदी का फोटो लगाने के लिए महात्मा गांधी का फोटो हटाया गया है। खादी-ग्रामोद्योग आयोग ने 2017 को अपने कैलेंडर व डायरी पर चरखे पर सूत कातते नरेंद्र मोदी का वैसा फोटो छापा है जिसे संसार महात्मा गांधी के फोटो के रूप में पहचानता है, लेकिन फर्क भी है। जैसा चरखा मोदी हिला रहे हैं वैसा चरखा न तो गांधीजी ने कभी चलाया, न वैसा चरखा बनाने की इजाजत ही वे कभी देते। फोटो शूट का यह सरकारी आयोजन जिस तामझाम से किया गया है वैसा आयोजन कर, उसमें गांधीजी को बुलाने की हिम्मत कोई नहीं कर सकता था। इस फोटो शूट में मोदी ने जैसे कपड़े पहन रखे हैं वैसे कपड़े गांधीजी ने तो कभी नहीं ही पहने, ऐसी सजधज में उनके सामने जाने की हिमाकत कोई नहीं करता, जैसे टेबल पर चरखा रखा गया है और जैसे टेबल पर बैठकर मोदी उस तथाकथित चरखे को घुमा रहे हैं, गांधीजी वहां होते तो पहली बात तो यही कहते कि तुम ऐसा दिखावटी तामझाम नहीं करते तो इन्हीं साधनों से हम कितने ही नए चरखे बना लेते। सवाल कितने ही हैं, लेकिन आज माहौल ऐसा बनाया गया है कि सवाल पूछना देशद्रोह से जोड़ दिया गया।
अगर यह कैलेंडर और यह डायरी नरेंद्र मोदी की सहमति व इजाजत से छापी गई है तो आज वे गहरे पश्चाताप में होंगे। कई बार हम किसी मौज में ऐसे काम कर जाते हैं जिसके परिणाम का हमें अंदाजा नहीं होता है, जैसे गांधीजी की फोटोबंदी का यह फैसला या फिर नोटबंदी का वह फैसला! अगर फोटोबंदी का यह फैसला नरेंद्र मोदी की जानकारी या सहमति के बिना हुआ है तो यह खतरे की घंटी है, चापलूसों और चापलूसी से सावधान! ऐसे चापलूसों ने कितने ही वक्ती नायकों को इतिहास के कूड़ाघर में जा पटका है। इसलिए फैसला प्रधानमंत्री को करना है। वे आयोग के कर्मचारियों की बात मानकर इन सारी डायरियों व कैलेंडर को कूड़ाघर भिजवा दें! ऐसा नहीं है कि इससे पहले कभी आयोग ने ऐसे कैलेंडर/डायरी नहीं छापे कि जिन पर गांधीजी का फोटो नहीं था।
भाजपा का हर प्रवक्ता वैसे सालों की सूची बना कर घूम रहा है और बता रहा है कि संविधान में ऐसी कोई धारा नहीं है कि जिसके तहत महात्मा गांधी का फोटो हटाना अपराध हो, यह सच है। इन बेचारों के लिए यह समझना कठिन है कि जो संविधान में नहीं है, वह समाज में मान्य कैसे है। ये नासमझ लोग संविधान के पन्ने पलटते हैं और परेशान पूछते हैं कि इसमें कहां लिखा है कि महात्मा गांधी राष्ट्रपिता हैं? कहीं नहीं लिखा है लेकिन समाज इसे इस कदर मान्य किए बैठा है कि इस प्रतीक को छूते ही करंट लगता है, भले ही हमारे अपने जीवन का बहुत सरोकार इससे न हो। जिस समाज ने संविधान में प्राण फूंके हैं, उसी समाज ने गांधी को अपने मन-प्राणों में बसा रखा है। इसलिए आयोग ने जब-जब गांधी का फोटो नहीं छापा तब-तब किसी दूसरे का फोटो भी नहीं छापा। मतलब साफ था, गांधी का विकल्प नहीं है। अब आप आज समाज को नई बारहखड़ी रटवाना चाह रहे हैं कि म से महात्मा, म से मोदी! लेकिन सत्ता की ताकत से, सत्ता की पूंजी से, सत्ता के आदेश से और सत्ता के आतंक से समाज ऐसी बारहखड़ी नहीं सीखता है।
यह समझना जरूरी है कि खादी कनॉटप्लेस पर बनी दुकान नहीं है कि जिसे चमकाने में सारी सरकार जुटी हुई है, खादी बिक्री के बढ़ते आंकड़ों में छिपा व्यापार नहीं है, जो हर पहर पोशाक बदलते हैं और समाज में उसकी कीमत का आतंक बनाते हैं। उनकी पोशाक खादी की है या पोलिएस्टर की समाज को इससे फर्क नहीं पड़ता है। पोशोकों और मुद्राओं के पीछे की असलियत समाज पहचानता है। खादी के लिए गांधी सिर्फ तीन सरल सूत्र कहते हैं- कातो तब पहनो, पहनो तब कातो और समझ-बूझ कर कातो! आज हालत यह है कि खादी कमीशन ने कर्ज देने के नाम पर सारी खादी उत्पादक संस्थाओं की गर्दन दबोच रखी है, उनकी चल-अचल संपत्ति अपने यहां गिरवी रख रखी है और अपनी नौकरशाही के आदेश पूरा करने का उन पर भयंकर दवाब डाल रखा है।
यह स्थिति आज की नहीं है बल्कि कमीशन बनने के बाद से शनै:-शनै: यह स्थिति बनी है। सरकार और बाजार मिलकर गांधी की खादी की हत्या ही कर डालेंगे, यह देख-जान कर विनोबा भावे के खादी कमीशन के समांतर खादी मिशन बनाया था और कहा था, जो अ-सरकारी होगा, वही असरकारी होगा, लेकिन खादी के काम में लगे लोग भी तो माटी के ही पुतले हैं न! सरकारी पैसों का आसान रास्ता और उससे बचने का भ्रष्ट रास्ता सबकी तरह इन्हें भी आसान लगता रहा और कमीशन का अजगर उन्हें अपनी जकड़ में लेता गया। गांधी ने खादी की ताकत यह बताई थी कि इसे कितने लोग मिलकर बनाते हैं यानी कपास की खेती से ले कर पूनी बनाने, कातने, बुनने, सिलने और फिर पहनने से कितने लोग जुड़ते हैं। खादी उत्पादन यथासंभव विकेंद्रित हो और इसका उत्पादक ही इसका उपभोक्ता भी हो ताकि मार्केटिंग, बिचौलिया, कमीशन जैसे बाजारू तंत्र से मुक्त इसकी व्यवस्था खड़ी हो।
आज स्थिति यह है कि बाजार में मिलने वाला, खादी के नाम पर बिक रहा 90 फीसदी कपड़ा खादी है ही नहीं! इस कारनामे में प्रधानमंत्री का गुजरात काफी आगे है। गांधी ने खादी को सत्ता पाने का नहीं, जनता को स्वावलंबी बनाने का औजार माना था। वे कहते थे कि जो जनता स्वावलंबी नहीं है वह स्वतंत्र व लोकतांत्रिक कैसे हो सकती है? आज सारी सत्ता येनकेन प्रकारेण अपने हाथों में समेट लेने की भूख ऐसी प्रबल है कि वह न तो कोई विवेक स्वीकारती है, न किसी मर्यादा का पालन करती है, लेकिन वह भूल गई है कि आप तस्वीर तो बदल सकते हैं लेकिन विचारों की तासीर का क्या करेंगे ? वह गांधी की तासीर ही थी जिससे टकराकर संसार का सबसे बड़ा साम्राज्य ऐसा ढहा कि फिर जुड़ न सका। वह विचारों की तासीर ही थी कि जिसके बल पर दिल्ली से कांग्रेस का खानदानी शासन ऐसा टूटा कि अब तक 40 सालों बाद तक अपने बूते लौट नहीं सका है।