-अश्विनी कुमार
पंजाब केसरी दिल्ली के संपादक
मायावती की बहुजन समाज पार्टी के बैंक खाते में नोटबंदी की घोषणा के बाद 104 करोड़ रुपए के पुराने बड़े नोट जमा कराए जाने के बाद साफ हो जाना चाहिए कि भारत में दलितों के नाम पर राजनीति करने को भी किस तरह कारोबार में तब्दील किया जा सकता है। बाबा साहेब भीमराव आंबेडकर की भी अपनी रिपब्लिकन पार्टी थी, मगर उन्होंने कभी भी दलितों के वोटों की खुले बाजार में नीलामी नहीं लगाई और अपना पूरा जीवन सामान्य दलित के सामाजिक-आर्थिक उत्थान के प्रति समर्पित कर दिया, मगर जिस तरह दलित अस्मिता के नाम पर बहन मायावती ने उनके वोटों को चुनावी बाजार में भुनाया है। उसकी कोई दूसरी मिसाल स्वतंत्र भारत के इतिहास में मिलनी कठिन है, मगर एक बड़ा सवाल भी इसके साथ पैदा हो गया है कि क्या राजनीतिक दलों द्वारा एकत्र चंदा राशि पर मिलने वाली आयकर छूट समाप्त करने का वक्त आ गया है। चुनावों को निर्देशित करने वाले जनप्रतिनिधित्व अधिनियम-1951 में स्व. इंदिरा गांधी द्वारा किए गए संशोधन को निरस्त करने की जरूरत नहीं आ गई है विशेषकर तब जबकि स्वयं प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने चुनाव सुधारों का समर्थन किया है।
चुनावी खर्च की सीमा को इंदिरा ने चुनाव कानून में संशोधन किया था, जिसका काफी मजाक बनाया गया था । वह भी तब जब उच्च न्यायालय ने उनकी पार्टी के एक सांसद स्व. अमरनाथ चावला का चुनाव इस आधार पर अवैध घोषित कर दिया था कि उन्होंने अपने दिल्ली सदर चुनाव क्षेत्र से 1971 में हुए लोकसभा चुनाव में नियत सीमा से अधिक धनराशि का खर्च किया है।
सर्वोच्च न्यायालय ने इस चुनाव में जनसंघ के हारे हुए प्रत्याशी स्व. कंवरलाल गुप्ता की याचिका को स्वीकार किया था और स्पष्ट आदेश दिया था कि प्रत्याशी के चुनाव खर्च में पार्टी द्वारा किया गया खर्च भी शामिल होगा। 1975 का यह फैसला चुनावी खर्च और राजनीतिक पार्टियों द्वारा एकत्र किए जाने वाले चंदे के बारे में ऐतिहासिक था और चुनाव प्रणाली की पारदर्शिता को बरकरार रखने वाला था मगर इंदिरा इस फैसले से तिलमिला गई थीं, क्योंकि रायबरेली चुनाव क्षेत्र से खुद उनके चुनाव को हारे हुए प्रत्याशी स्व. राजनारायण ने चुनौती दे रखी थी। अमरनाथ चावला मुकद्दमे का फैसला आने के बाद इंदिरा जी ने जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के अनुच्छेद 1 से 77 तक चुनाव खर्च के प्रावधानों को पूरी तरह बदल दिया और यह जोड़ दिया कि किसी भी प्रत्याशी के चुनाव में कोई संगठन या उसका समर्थक अथवा मित्र कितना ही धन खर्च कर सकता है जो उसके चुनावी खर्च में शामिल नहीं किया जाएगा। बस यहीं से चुनावों के कारोबार में बदलने की पक्की शुरुआत हो गई और देशवासी खड़े-खड़े देखते रहे कि किस तरह धनकुबेरों ने राजनीति को अपनी चेरी बनाना शुरू किया। अत: यह संयोग नहीं है कि बाद में जिन क्षेत्रीय दलों का अपने-अपने राज्यों में दबदबा बढ़ता गया, उन्होंने धन्ना सेठों को राज्यसभा की सीटें देने के लिए खुली बोलियां लगानी शुरू कर दीं और शराब माफिया से लेकर भूमि माफिया तक के धुरंधर इस उच्च सदन की शोभा बनने लगे। इसने भारत को भ्रष्टाचार की दलदल में किस तरह डुबोया कि 2001 में राष्ट्रीय विधि आयोग, जो कि भारतीय संविधान की कार्यप्रणाली की समीक्षा के लिए गठित हुआ था, ने कहा कि चुनाव लड़ने के लिए धन एकत्र करने का दबाव और लालसा ने भ्रष्टाचार के अदृश्य ढांचे को खड़ा कर दिया है मगर ऐसा नहीं है कि 1975 में इंदिरा द्वारा चुनाव खर्च की परिभाषा बदले जाने से पूर्व राजनीतिक दलों द्वारा भ्रष्टाचार नहीं किया रहा था। 1964 में संथानम् समिति और 1973 में वांचू समिति ने अपनी रिपोर्टों में सिफारिश की कि राजनीतिक दलों का सरकारी खजाने से वित्त पोषण करने की व्यवस्था की जानी चाहिए। ये दोनों समितियां भ्रष्टाचार को खत्म करने पर विचार करने के लिए गठित की गई थीं। वांचू समिति ने यह सिफारिश भी की थी कि बड़ी रकम के नोटों को बंद कर देना चाहिए। कम से कम यह बात स्पष्ट होनी चाहिए कि मोदी द्वारा की गई नोटबंदी का संबंध चुनावी भ्रष्टाचार से भी है जो इस अभियान का एक महत्वपूर्ण पड़ाव होगा। अत: नोटबंदी के मुद्दे पर जिस तरह कांग्रेस, तृणमूल कांग्रेस और आम आदमी पार्टी फडफड़ा रही हैं, उसका कारण समझा जा सकता है। खासकर तब जबकि आम आदमी पार्टी ने अपने चुनावी चंदे का हिसाब-किताब चुनाव आयोग को देने में भारी धांधली की है और गैरकानूनी काम किया है। राजनीतिक दलों के चंदे का हिसाब-किताब सार्वजनिक रूप से देने की मजबूरी जहां सर्वोच्च न्यायालय द्वारा दिए गए विभिन्न फैसलों से बनी वहीं 1992 में चुनाव आयोग ने सरकार से मजबूती से कहा कि प्रत्येक राजनीतिक दल को अपने चंदे का लेखा-जोखाकृत हिसाब चुनाव आयोग को दिया जाना चाहिए और सार्वजनिक भी किया जाना चाहिए। वैसे चुनाव आयोग के पास यह अधिकार पहले से ही है कि वह राजनीतिक पार्टियों के कामकाज पर पूरी निगाह रखे और 1975 में इंदिरा गांधी द्वारा किए गए संशोधन के बाद पार्टियों के चंदे और उनके खर्च का लेखा-जोखा करना चुनाव आयोग का दायित्व भी बन गया था क्योंकि उन्होंने चुनावों पर कितना धन खर्च किया है, इसका हिसाब-किताब भी उन्हें रखना था। इसमें बाद में 20 हजार रुपए की राशि तक को नकद में लेने की छूट दलों को मिली जिनमें चंदादाताओं का विवरण चुनाव आयोग को देना जरूरी नहीं था। इसी का तमाशा मायावती ने 104 करोड़ रुपए की पहली खेप बैंक में जमा करके नोटबंदी के डर से बनाया है।
अगर इतने नोट पार्टी के पास जमा थे तो 8 नवंबर से पहले उन्हें बैंक में जमा कराने की जरूरत ही न पड़ती बशर्ते नोट बंदी लागू न की जाती। नोटबंदी का यह पहला राजनीतिक आघात है जो माया के ठगिनी होने का सबूत है क्योंकि पुराने नोट तो पड़े-पड़े कागज के टुकड़े हो जाते और चुनावों में उनका क्या महत्व रह जाता? मगर लक्ष्मी (माया) तो भारत के गांवों में ठगिनी ही कही जाती है परंतु राजनीतिक माया तो महाठगिनी निकली। वाह री दलितों की किस्मत!
एक जरा सी बात पर बरसों के याराने गए
चलो अच्छा हुआ कुछ लोग तो पहचाने गए।