23 Apr 2024, 16:06:44 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-रवीश कुमार
वरिष्ठ पत्रकार

नोटबंदी को लेकर एक नई खुशी छाने लगी है। नरेंद्र मोदी सरकार अपने चौथे बजट में कॉरपोरेट और इनकम टैक्स में कटौती करने वाली है ताकि मंद गति से चल रही अर्थव्यवस्था दौड़ने लगे। कॉरपोरेट टैक्स को पच्चीस फीसदी तक लाने का बहुत पुराना लक्ष्य इस बार या तो पूरा साकार होगा या पहले से कुछ ज्यादा होगा या इसके नाम पर अनुमान-अनुमान खेल कर खुशनुमा माहौल बनाया जाएगा। लोगों को बुरा न लगे इसलिए यह भी कहा जा रहा है कि नोटबंदी का समर्थन करने वाले छोटे कर दाताओं को भी राहत मिलेगी। करदाताओं की संख्या बढ़ने से टैक्स रेट में कमी आएगी।

पहले कहा गया कि जीएसटी के आने से अप्रत्यक्ष कर कम हो जाएंगे,चीजें सस्ती हो जाएंगी क्योंकि कर चोरी बंद हो जाएगी। एक देश एक कर का नारा लगा। अब उस जीएसटी में भी भांति- भांति के कर हैं और जीएसटी को लेकर दिखाए जाने वाले सपने गायब हैं। करदाताओं को देखना होगा कि उसे कर छूट के नाम पर कोई बड़ी राहत मिलती है या सिर्फ बड़ी-बड़ी हेडलाइन। वैसे ही जैसे सातवें वेतन आयोग के वक्त हेडलाइन में कुछ और मिला और असलीयत में कुछ और बल्कि बहुत-कुछ तो अभी तक मिला ही नहीं है। हालत ये है कि कर्मचारी संगठन हड़ताल पर जाने की धमकी दे रहे हैं। सैनिकों को पूरी तरह सातवें वेतन आयोग का पूरा हिस्सा मिला ही नहीं है। वहां भी विवाद है। करदाताओं को महीने में हजार रुपए की छूट मिल भी जाए तो ये कौन सी बड़ी छूट होगी? हजार दो हजार की छूट को ऐसे बताया जाएगा जैसे इतने में आप सब्जी के साथ साथ मकान दुकान भी खरीद लेंगे। सातवें वेतन आयोग से भी अर्थव्यवस्था में गति नहीं आई। इसके आने के समय भी यही तर्क दिए गए थे। अब इस क्रांतिकारी वेतन वृद्धि के असर का कोई नाम तक नहीं लेता है।

ऐसा दावा करने वाले भी नहीं बताते हैं कि सातवें वेतन आयोग के बाद उपभोक्ता सामान की बिक्री में संभावित उछाल का क्या हुआ? सरकार की तरफ से संकेत मिल रहे हैं कि कम समय में शेयर बेचने पर अब पहले से ज्यादा टैक्स देना होगा। कायदे से सरकार को किसी कमाई में फर्क नहीं करना चाहिए। हर तरह की कमाई पर एक तरह का टैक्स होना चाहिए। सैलरी वाला तीस परसेंट टैक्स दे और शेयर वाला दस परसेंट पर, ठीक नहीं लगता। जो भी है टैक्स को लेकर जो बयान आ रहे हैं उससे लगता है कि सरकार को नोटबंदी से कुछ खास नहीं मिला। अब टैक्स ही आखिरी उम्मीद है।
भारत की आबादी कई दिनों से 120 करोड़ है। एक अनुमान के मुताबिक एक करोड़ बीस लाख लोग ही आयकर देते हैं, लेकिन पूरी आबादी कर चोर है यह नहीं समझना चाहिए, बल्कि आबादी का बड़ा हिस्सा टैक्स देने के लायक ही नहीं है, यह कहना सही होगा। 20-26 करोड़ लोग गरीबी रेखा के नीचे बताए जाते हैं तो जाहिर है ये आयकर नहीं देंगे। वैसे उपभोक्ता सामानों को खरीद कर ये भी अप्रत्यक्ष कर देते ही हैं। अर्जुन सेनगुप्ता कमेटी ने कुछ साल पहले कहा था कि सत्तर फीसदी आबादी बीस रुपया रोज कमाती है। इस पर सब हैरान हुए लेकिन यह आंकड़ा आज भी हकीकत से बहुत दूर नहीं है। जब साठ से सत्तर फीसदी टैक्स देने लायक नहीं है तो फिर हम हल्ला क्यों मचा रहे हैं कि भारत में लोग टैक्स नहीं देते।

अब बची तीस फीसदी आबादी जो बीस रुपए से ज्यादा कमाती है। इसमें से भी बड़ा हिस्सा न्यूनतम मजदूरी या उससे कम कमाता है। बमुश्किल से ये तबका न्यूनतम जीवन स्तर के लायक खर्चे जुटा पाता है। इसलिए वित्त मंत्री कभी ढाई लाख तो कभी चार लाख सालाना आय वालों को टैक्स से बाहर कर देते हैं। आपने कई बार सुना होगा कि भारत में एक फीसदी आबादी के पास देश की कुल संपत्ति का साठ फीसदी हिस्सा है। थोड़ा भी दिमाग लगाएंगे तो यह जान जाएंगे कि जिस एक परसेंट के पास देश का साठ फीसदी माल है वही ज्यादा टैक्स देगा या जिसके पास कुछ नहीं है वो देगा? लेकिन उसे किस आधार पर राहत देने की योजना बन रही है? एक बात और। सारा जोर टैक्स देने और वसूलने पर है लेकिन उससे जनता के लिए सामाजिक सुरक्षा का कौन-सा बेहतरीन सिस्टम बनेगा। इस पर कोई बात नहीं करता, क्योंकि भाजपा वाले विपक्ष को चुप करा देते हैं कि आपने साठ साल में क्या किया? भाजपा को उन राज्यों की ज्यादा बातें करनी चाहिए जहां वो दस साल से ज्यादा सत्ता में है। क्या वहां कोई अलग और आदर्श व्यवस्था लागू है? बीजेपी ने उन राज्यों में बारह पंद्रह सालों में क्या कर दिया?

क्या नोटबंदी के बाद नए करदाताओं की संख्या बढ़ने वाली है लेकिन क्या बढ़ी हुई संख्या हासिल करने का रास्ता नोटबंदी ही था? जरूर टैक्स न देने वाले लोग बड़ी संख्या में हैं मगर एक अरब से अधिक की आबादी वाले देश में नोटबंदी से पचास साठ लाख नए करदाता मिल ही गए तो कौन-सी बड़ी बात है। ये सब तो आयकर विभाग अपनी सामान्य गतिविधियों के दम पर हासिल कर सकता है। कम से कम दस बीस करोड़ आयकरदाता तो पकड़े ही जाने चाहिए। भारत में हर साल बीस लाख कारें बिकती हैं। दस लाख लोग सालाना दस लाख से अधिक की आमदनी का इनकम टैक्स फाइल करते हैं। क्या यह संभव है? आमदनी और कार की खरीदारी में कोई तो मैच होना चाहिए? हमें देखना होगा कि बीस लाख कारों में से कितनी कम दामों वाली कारें हैं और कितनी लाखों करोड़ों वाली? क्या मर्सिडीज खरीदने वाले सभी ग्राहक टैक्स देते हैं? अगर नहीं देते हैं तो क्या ऐसे लोगों को बिना नोटबंदी के नहीं पकड़ा जा सकता है? भारत में जितने लोग टैक्स देते हैं उससे ज्यादा लोग टैक्स रिटर्न भरते हैं, मगर टैक्स नहीं देते। जाहिर है ये टैक्स देने के लायक नहीं हैं। ऐसे लोगों की संख्या एक करोड़ सत्तर लाख बताई जाती है। जब रिटर्न भरने वालों की हैसियत टैक्स देने की नहीं है तो किस आंकड़े के आधार पर हम आसानी से मान लेते हैं कि करोड़ों की संख्या में लोग टैक्स नहीं देते हैं। दरअसल जो नहीं देते हैं वो भी उसी एक फीसदी में आते हैं जिनके पास देश की कुल संपत्ति का साठ फीसदी हिस्सा है। क्या भारत सरकार के पास इस एक फीसदी को साधने के लिए कोई और तरीका नहीं था? जरूरी था कि पूरे देश को लाइन में खड़ा करना?

सवाल यह है कि मजदूर ही नहीं प्राइवेट स्कूल-कॉलेज के शिक्षक क्या वाकई उतना वेतन लेने लगेंगे जितने पर साइन करते हैं? क्या वाकई ऐसा होने लगा है या होगा? इनकी सच्चाई इन्हीं के साथ दफन हो जाएगी। हम कभी नहीं जान पाएंगे। भाजपा से लेकर कांग्रेसी नेताओं के ही इंजीनियरिंग और मेडिकल कॉलेज हैं। वहां शिक्षकों को साइन पचास हजार के आगे कराया जाता है और दिया जाता है तीस हजार। वे खुद ही बताते हैं। सरकार बताए कि उसके किस कानून से ऐसा होना असंभव हो जाएगा और कैसे। जब शिक्षकों का यह हाल है तो मजदूरों का क्या होगा। जो जनता नोटबंदी के बाद भी दो सौ रुपए लेकर रैलियों में गरीबी दूर करने का फर्जऱ्ी भाषण सुनने जा रही है, वही बेहतर बता सकती है कि पैसे लेकर खुश हुई या उसके होश उड़ गए।

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