25 Apr 2024, 07:17:26 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-वीना नागपाल

जब प्रशासन इस ओर सजग हो जाए कि बेटियों की खुशी में ही उन्हें सशक्त बनाने का संदेश भी निहित है तब बेटियां अवश्य ही बच भी जाएंगी और पढ़ भी लेंगी। इसी विचार को लेकर इंदौर कलेक्टर श्री पी. नरहरि ने यही किया। उन्होंने दंगल फिल्म का एक शो अनाथाश्रम की बेटियों के लिए रखवाया। भली प्रकार यह कल्पना की जा सकती है कि विभिन्न आयु की यह बच्चियां फिल्म देखने के नाम पर ही कितनी प्रसन्न हुई होंगी। पी. नरहरि का यह विशेष विचार व प्रयास बहुत ही सार्थक व सकारात्मक संदेश के लिए था। हम सब जानते हैं कि फिल्म दंगल में बेटियों की सफलता का बहुत सशक्त चित्रण है। वह संघर्ष करती हैं और सफल होने के लिए निरंतर परिस्थितियों से जूझती हैं परंतु अंतत: वह अपनी विजय का जयघोष करती हैं अर्थात वह सफलता की उस ऊंचाई पर पहुंच जाती हैं जिसमें उनके कुछ कर गुजरने की जिजीविषा में अपना नाम भी ऊंचा करने की ललक छिपी हुई है। इस फिल्म में दो संदेश हैं पहला तो यह कि यदि बेटियों को अवसर दिए जाएं, उन्हें प्रोत्सहित किया जाए और उन्हें सफलता पाने के लिए प्रेरित किया जाए तो वह भी अपना व परिवार का नाम व सम्मान दोनों बढ़ा सकती हैं। दूसरा संदेश परिवारों और परिवार के मुखिया पिता के लिए है कि अपनी बेटियों को भी गौरव समझें। वह एक बोझ नहीं बल्कि आपकी वह पूंजी हैं जो आपके मान-सम्मान का माध्यम बन सकती हैं।

बेटियों के प्रति दृष्टिकोण बदलने का इस फिल्म का संदेश शायद बहुत दूर-दूर तक जाए। इस फिल्म में पिता का वह विचार सशक्त रूप से दिखाया गया है जो बेटियों के होने पर मुंह नहीं लटकाता बल्कि उनसे कुछ करके दिखाता है। शासन द्वारा ‘बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ’ के स्लोगन को सफल बनाने के लिए पता नहीं कितने जतन किए जा रहे हैं। इस तरह के यत्न बहुत ईमानदारी से किए जाने चाहिए। शासन द्वारा दिया गया नारा केवल नारा बनने तक ही सीमित रह जाएगा अगर इसमें वह कोशिशें शामिल न की जाएं जिनके कारण लोग इस नारे से जुड़ाव महसूस करें और इसे अपने दिल के करीब लाकर बेटियों के जन्म को भी सहजता से स्वीकार करें और उनके जन्म पर माथे पर शिकन लाने या उसे जन्म देने वाली मां को धिक्कारने के स्थान पर उसे एक स्वस्थ संतान को जन्म देनी वाली मानें। पी. नरहरि ने लड़कियों को फिल्म दिखाने की व्यवस्था कर शासन के बेटी बचाने और उसे अवसर देने के नारे को एक सार्थक व्यवहारिक रूप दिया है। दंगल फिल्म का इससे बेहतर सदुपयोग और कोई हो ही नहीं सकता था। इसे देखने वाली बेटियां यह सुअवसर पाकर कुछ करने का अवश्य ही निर्णय करेंगी।

बेटियां झाड़ियों व गंदे नाले के किनारे या किसी अन्य सुनसान स्थान पर फेंकी जाने वाली किसी वस्तु के रूप में जन्म नहीं लेती हैं उनका इस समाज में एक सार्थक योगदान है। वह पारिवारिक संतुलन बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती हैं। इसके साथ ही मौके दिए जाने और प्रोत्साहित व प्रेरित करने या जब कोई सफलता अर्जित करती हैं तब वह समाज में विशेष योगदान देने, उसे बेहतर बनाने तथा उसे सात्विक रूप से रहने लायक बनाए जाने की व्यवस्था करती हैं। वह मानव स्वभाव की सुंदर, श्रेष्ठ और दिल तक पहुंचने वाली भावनाओं की वाहक बनती हैं। जैसे चिड़ियाओं की चहचहाट की गंूज कम हो गई वैसे ही बेटियों की गुनगुनाती, मधुर और मीठी आवाजें बंद न करें। शासन के साथ-साथ ऐसे प्रयास जारी रहने चाहिए जो बेटियों को बचाने और सार्थक जीवन जीने की प्रेरणा दें।

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