24 Apr 2024, 07:23:00 के समाचार About us Android App Advertisement Contact us app facebook twitter android

-सुशील कुमार सिंह
लेखक समसामयिक विषयों पर लिखते हैं।


जब सरकार यह कहती है कि रिजर्व बैंक नोटबंदी के बाद पैदा हुए नोटों की कमी से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है, तो यह प्रश्न अनायास ही उठता है कि रिजर्व बैंक की इतनी तैयारी के बावजूद स्थिति काबू में क्यों नहीं है। इस अनुमान में कि 30 दिसंबर के बाद इन जैसी समस्याएं नहीं रहेंगी, मात्र संभावनाओं का खेल नजर आता है। 30 दिसंबर में जमा कुछ ही दिन बाकी हैं, पर जनता एटीएम और बैंक के सामने अभी भी डटी हुई है। कई पैसे की बाट जोहते-जोहते पूरा दिन बैंक की चौखट पर ही गुजार रहे हैं, बावजूद इसके खाली जेब घर वापस जाना पड़ रहा है। ऐसे में सवाल है कि जब राजनीतिक और रणनीतिक तौर पर सरकार का रुख सही है, आरबीआई की तिजोरी भी नोटों से भरी है तो फिर जनता की जेब खाली क्यों है।

इतना ही नहीं रिजर्व बैंक द्वारा इन दिनों जिस तर्ज पर निर्णय लिए जा रहे हैं वह भी हतप्रभ करने वाले हैं। जिस देश में बैंकिंग पद्धति का प्रयोग और अनुप्रयोग अभी भी जटिल हो जहां इंटरनेट बैंकिंग से लेनदेन के मामले पूरी तरह विस्तारित न हो पाए हों और बैंक के अर्थशास्त्र से भारी-भरकम जनसंख्या नासमझ हो उसी देश में बैंकों का बैंक रिजर्व बैंक औसत से अधिक स्पीड में नित नए फैसले ले रहा हो इसे कितना वाजिब कहा जाएगा। कांग्रेस उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने शायद इसी को देखते हुए प्रधानमंत्री मोदी पर हमला बोलते हुए कहा कि नोटबंदी पर रिजर्व बैंक के नियम उसी तरह बदल रहे हैं जिस तरह पीएम अपने कपड़े बदलते हैं। बीते 8 नवंबर से अब तक नोटबंदी से जुड़े छोटे-बड़े फैसलों की संख्या 60 से अधिक हो गई है। शायद सरकार और रिजर्व बैंक भी इस गिनती से अनभिज्ञ हो पर असलियत यह है कि फायदे का सौदा नोटबंदी फिलहाल सरकार के गले की हड्डी भी बना हुआ है।

जब जनता के चिंतक और अर्थशास्त्र के विचारक ही भ्रमात्मक निर्णय में उलझ जाएंगे और अपने ही फैसले को लेकर संदेह में फंस जाएंगे तो देश के समाजशास्त्र को कैसे दिशा दी जाएगी। नोटबंदी के बाद 12 लाख करोड़ रुपए से अधिक नकद बैंकों में जमा हो चुके हैं जो अनुमान से कहीं अधिक है, बावजूद इसके रिजर्व बैंक ने अपने सैद्धांतिक नीतियों में अभी भी कोई परिवर्तन नहीं किया है, मसलन रेपो रेट, रिवर्स रेपो रेट आदि। उम्मीद की जा रही थी कि रिजर्व बैंक ब्याज दर में गिरावट लाएगा पर ऐसा नहीं हुआ। शायद इससे आरबीआई दीर्घकालिक रणनीति और नोटबंदी से बेअसर होने का संदेश दे रही हो पर कांटा तो आरबीआई को भी खूब चुभा है। अभी भी मांग के अनुपात में दो हजार और पांच सौ के नोट पहुंचाने में रिजर्व बैंक हांफ रहा है। सारे जुगत भिड़ाने के बाद भी जनता की मुसीबत नहीं घट रही है। इतना ही नहीं नए फरमानों से सरकार और रिजर्व बैंक की विश्वसनीयता भी कटघरे में जाती दिखाई दे रही है। रोचक यह भी है कि 30 दिसंबर तक बैंक में नोट जमा करने का फरमान सरकार द्वारा पहले दिन ही सुनाया गया था, जिस पर बीच में ही ब्रेक लगाते हुए एक नया फरमान जारी किया गया, जिसके तहत पांच हजार से अधिक जमा करने पर जमाकर्ता को लिखित कारण बताने होंगे कि देरी की वजह क्या है? यह न केवल जनता के लिए मुसीबत है बल्कि चरमराई बैंकिंग व्यवस्था पर एक और बोझ डालने जैसा है। हालांकि इस नियम में भी सरकार की तरफ से कुछ सफाई आ चुकी है और इसमें भी फेरबदल हो गया है। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने नए साल में नोट की किल्लत नहीं होगी की बात कह रहे हैं और इसके लिए भी आश्वस्त कर रहे हैं कि मुद्रा की आपूर्ति के लिए रिजर्व बैंक पूरी तरह तैयार है। सवाल है कि जब रिजर्व बैंक इतना ही तैयार है तो किल्लत की सूरत क्यों नहीं बदल रही।

इस बात पर भी गौर करने की आवश्यकता है कि बीते कई दशकों से एक हजार और पांच सौ के नए नोट को करेंसी कल्चर में इतने बड़े पैमाने पर विस्तार दिया गया कि बाकी सभी नोट और सिक्के कुल मुद्रा के मात्र 14 फीसदी रह गए। देखा जाय तो छह दशक से अधिक की सत्ता पर कांग्रेस काबिज रही है। जाहिर है कि नोटों का असंतुलन इन्हीं के कार्यकाल में कहीं अधिक व्याप्त हुआ है। इससे सीधा सरोकार रिजर्व बैंक का है पर शायद इस पर ध्यान नहीं गया या फिर यह समझने में चूक हुई कि आने वाले दिनों में कभी भी विमुद्रीकरण से जुड़े निर्णय लिए जाएंगे तो इसका क्या असर होगा। बड़े पैमाने पर बड़े नोटों को छापना और औसतन छोटी मुद्राओं को अनुपात से पीछे रखना भी आज रिजर्व बैंक के लिए एक चुनौती बना हुआ है। यदि इस बात का ध्यान रखा गया होता कि छोटी-बड़ी सभी प्रकार की मुद्राओं का अपना एक अनुपात होगा तो शायद ये परेशानी इतनी न होती। गौरतलब है कि दो प्रकार के नोट मात्र की बंदी से पूरी 86 फीसदी मुद्रा बाजार और लोगों के जीवन से बाहर हो गई। इस बात से पूरी तरह सहमत हुआ जा सकता है कि एक हजार, पांच सौ के नोटों में काला धन छुपा था, परंतु साढ़े चौदह लाख करोड़ के इन दोनों करेंसी के एवज में 12 लाख करोड़ से अधिक रुपए बैंकों की तिजोरी में जमा हो जाना, इसे पूरी तरह पुख्ता करार नहीं दिया जा सकता। फिलहाल अभी भी जनता की जेब खाली है, भले ही रिजर्व बैंक की तिजोरी क्यों न भरी हो। कुछ तो दर-दर की ठोकर खा रहे हैं फिर भी सरकार के निर्णय को सही ठहरा रहे हैं।

नोटबंदी के बाद बीते दिनों दिसंबर माह में ही मौद्रिक नीति की समीक्षा के दौरान आरबीआई गवर्नर उर्जित पटेल ने बताया था कि नोटबंदी के बाद आरबीआई ने क्या किया और इससे क्या प्रभाव पड़ेगा तब तक चार लाख करोड़ की नई करेंसी भी जारी हो चुकी थी अब यह छह लाख से अधिक बताई जा रही है। आरबीआई ने यह भी साफ किया था कि निर्णय जल्दबाजी में नहीं लिया गया था। उन्होंने यह भी कहा था कि इस फैसले से काले धन, फर्जी करेंसी और आतंकवाद के खात्मे में मदद मिलेगी। समीक्षात्मक टिप्पणी के दौरान उनका यह मानना था कि नोटबंदी का असर आरबीआई की बैलेंस शीट पर नहीं पड़ेगा। साफ है कि रिजर्व बैंक के मजबूत मनोबल और वित्तीय नीति में कोई असमंजस नहीं है पर यह कितना सच है ये तो वही जानते हैं। इसके अलावा प्रधानमंत्री, वित्तमंत्री समेत कई और मंत्रालय के सदस्य बीते 20 दिसंबर को पंजाब में हुए स्थानीय निकाय के 26 सीटों के नतीजों में 20 पर अपनी जीत पक्का करने के चलते नोटबंदी को और पुख्ता करार दे रही है।

यह कहना गैरवाजिब नहीं होगा कि नोटबंदी से मची अफरा-तफरी से सरकार काफी चिंतित है और इसे शीघ्र हल करना चाहती है। इसके पीछे एक बड़ी वजह उत्तरप्रदेश, उत्तराखंड समेत पांच राज्यों में विधानसभा चुनाव का होना भी है, पर इस सच्चाई से शायद ही किसी को गुरेज हो कि नोटबंदी के चलते तमाम अच्छे काज के बीच आम जनता काफी पिसी है साथ ही मुश्किल में रहते हुए भी सरकार की पीठ थपथपाई है। सबके बावजूद इस सवाल का जवाब कौन देगा कि जब रिजर्व बैंक की रणनीति भी सही है और उसकी तिजोरी भी भरी है तो जनता की जेब खाली क्यों है?

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